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सहजानंदशास्त्रमाला तथाहि----यथा य एव घटस्तदेव धुण्ड मित्युक्ते घटकुण्डस्वरूपयोरेकलासंभवात्तदुभयाधारभूता । मृत्तिका संभवति, तथा य एव संभवः स एव विलय इत्युक्ते संभव विलयस्वरूपयो र कत्थासंभवातदुभयाधारभूतं ध्रौव्यं संभवति । ततो देवादिपर्याय संभवति मनुष्यादिपर्याय बिलीयमाने च 4 एव संभवः स एव विलय इति कृत्वा तदुभयाधारभूतं प्रोध्यवज्जीवद्रव्यं संभाव्यत एव । ततः सर्वदा द्रव्यत्वेन जीवनोत्कीयोऽवतिष्ठते । अपि च नथाऽन्यो घटोऽन्यत्कुण्डभित्युक्ते तदुमयाधारभूताया मृत्तिकाया अन्यत्वासं भवात् घटकुण्डस्वरूपे संभवतः, तथान्यः संभवोऽन्यो विलय इत्युक्ते तदुभयाधारभूतस्य ध्रौव्यस्यान्यत्वासंभवात्संभव विलयस्वरूपे संभवतः । ततो देवादिपर्याये संभवति मनुष्यादिपर्याय विलीयमाने चान्य; संभयोऽन्यो विलय इति कृल्या संभ वबिलयवन्ती देवादिमनुष्यादिपर्यायौ संभाव्यते । ततः प्रतिक्षर यिनीयोऽनवस्थितः ॥११६॥ विलय संभवविलय इति तत् नाना । मूलधातु--जनी प्रादुर्भाव, पर प्रदर्शन दिवादि । उभयपदविवरणजायदि आयते णस्सदि नश्यति-वर्तमान अन्य पुरुष एलायचन किया । न च हिम इलि-अव्यय । खणार भंगगमुभवे क्षणभङ्ग समुद्भवे जरणे जने-सप्तमी एकवचन । बोई कश्चित-अव्यय अन्तः प्र० एक० को यः गोस: बिलओ विलयः-प्रथमा एक० । संभवविल्या--प्रा बहु ० नंभवबिलयो..प्र. द्विवचन । ते-प्रा० बहु । तो-प्रथमा द्विवचन । णाणा नाना-अव्यय । निक्ति-गज्जन भङ्गः, उद्भवनं उद्भवः । समासक्षों मङ्गः समुद्भवः यस्य सः तस्मिन, संभवश्च बिल यश्च संभवक्लियो ।। ११६ ।। ध्रौव्य प्रगट होता है; इसी रोतिसे देवादि पर्यायके उत्पन्न होने और मनुष्यादि पर्यायवे नष्ट होनेपर, 'जो उत्पाद है वहीं विलय है। ऐसा जान कर उन दोनोंका आधारभूत नोव्यवान जीवद्रव्य लक्ष में प्राता है; इसलिय सर्वदा द्रव्यरूपसे जीव टंकोत्कीर्ण रहता है । और फिर, जैसे:-- 'अन्य घड़ा है और अन्य कुण्ड है' ऐसा कहा जानेपर उन दोनोंकी आधारभूत मिट्टोका अन्यत्व अर्थात् भिन्न-भिन्नपना असंभव होनेसे घड़ेका और कुण्डका दोनों का भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रगट होता है, उसी प्रकार अन्य उत्पाद हैं और अन्य व्यय है। ऐसा कहा जानेपर उन दोनोंके प्राधारभूत ध्रौव्यका अन्यत्व असंभव होनेसे उत्पाद और व्ययका स्वरूप प्रगट होता है; इसी। रीतिसे देवादि पर्यायके उत्पन्न होनेपर और मनुष्यादि पर्यायके नष्ट होनेपर, 'अन्य उत्पाद है। और अन्य व्यय है ऐसा जानकर उत्पाद और व्यय वाली देवादि पर्याय और मनुष्यादि पर्याय लक्ष में आती है। इसलिये प्रतिक्षण पर्यायोंसे जीव अनवस्थित रहता है।
प्रसंगविवरण -...अनन्तरपूर्व गाथामें यह निर्धारित किया गया था कि मनुष्यादि । पर्यायोंमें अपनी विभाव क्रियाके परिणमनसे जीवके स्वभावका अभिभव होता है। अब इस गाथामें बताया गया है कि जीव द्रव्यपनेसे अवस्थित होकर भी पर्यायों द्वारा अनवस्थित है।
तथ्यप्रकाश ---- (१) जीवद्रव्य न जन्म लेता है, न नष्ट होता है, जीवद्रव्य तो वही
माया