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प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अथ परिणामात्मके संसारे कुतः पुद्गलश्लेषो येन तस्य मनुष्यादिपर्यायात्मकत्वमिस्वत्र समाधानमुपवर्णयति----
आदा कम्मलिमसो परिणाम लहदि कम्मसंजुत्तं । तत्तो सिलसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो ॥१२१॥
कर्मलीमस आत्मा, कर्मनिबद्ध परिणाम पाता है।
उससे कर्म सिलिसते, इससे परिणाम कर्म हुआ ॥१२१३॥ मात्मा कसमलीमसः परिणामं लभते कर्मसंयुक्तम् । ततः दिलष्यति कर्म तम्मान कम तु परिणामः ।।१२१॥
यो हि नाम संसारनाभायमात्मनस्तथाविधः परिणामः स एवं द्रव्य कर्मश्लेषहेतुः । अथ समाविषपरिणामस्थापि को हेतुः, द्रव्यकर्म हेतुः तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनेवोपलम्मान् । एवं
नामराज्ञः अत्त कम्ममलीमस परिणाम कम्मराजुत्त तत्तो कम्म त कम्म तु परिणाम | धातुसंजलभ प्राप्ती, सिलीस आलिंगने । प्रातिपदिक----आत्मन् कर्ममलीमस परिणाम कर्मसंयुक्त ततः क मैन तत् अमन न परिणाम 1 मूलधातु- डुलभा प्राप्ती, हिला आलिङ्गने दिवादि । उभयपदविवरण-आदा आत्मा लिभते । प्राप्त करता है, [ततः] उस कर्मसंयुक्त परिणाम के निमित्तसे कर्म श्लिश्यति] कर्म लिपक जाता है। [तस्मात्] इस कारण [परिणामः तु पार्म] अशुद्ध पारणाम ही कर्म है अर्यात द्रव्यकर्मके बन्धका निमित्त होनेसे मूलरूप तो नशुद्ध परिणाम हो कर्म है।
। तात्पर्य---भवधारणके कारणभूत द्रव्यकमके बन्धका कारण जीवका अशुद्ध परिणाम
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e टोकार्थ-जो यह 'संसार' नामक प्रात्माका उस प्रकारका परिणाम है यही द्रव्यकर्म के विपकने का हेतु है । अब उस प्रकारके परिरमामका भी हेतु कौन है ? द्रव्यकर्म उसका हेतु है क्योकि द्रव्यकर्मकी संयुक्ततासे हो उस प्रकारका परिणाम देखा जाता है। प्रश्न—ऐसा होनेसे इतरेतराश्रय दोष प्रा जायगा। उत्तर----नहीं पायगा; क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकर्मके साथ संबद्ध प्रात्माका जो पूर्वका द्रव्यकर्म है उसको वहाँ हेतुरूपसे स्वीकार किया गया है । इस प्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कार्यभूत है और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है,
सा प्रारमाका तथाविधपरिणाम उपचारसे द्रव्यकर्म ही है, और आत्मा भी अपने परिणामका का होने से द्रव्यकर्मका कर्ता भी उपचारसे है।
हा प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें जीवकी अनवस्थितताका कारण बताया गया बा। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि परिणामात्मक संसारमें कर्ममलिन यह जीव विकारपरिणाम करता है इससे पुद्गलसम्बंध होता है और इससे मनुष्यादिक पर्याय होते हैं ।
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