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प्रयागार-माजलाशी टीका अप जीवस्यातवस्थितत्वहेतुमुद्योतयति.....
'तम्हा दु गात्थि कोई महावसमवहिदो ति संसारे । संसारो पुरा किरिया संसारमागास्स दव्यस्म ॥१२०॥ इस कारणसे कोई, संसारमें न स्वभावसमवस्थित ।
संसरण क्रिया होती, संसरमाण हि द्रव्यको है ॥१२०१६ सम्मान नारित कश्चित् स्वभावसमस्थित इति रांसारे । संसार: पुन: निया संसरतो द्रव्यमा ।। १२० ।
यतः खलु जीवो द्रव्यत्वेनावस्थितोऽपि पर्याय रनवस्थिानः, तत: प्रतीयते न कश्चिम नामसज-त दुण कोई सहावसामट्टिद ति संसार गुण किरिया संसरमाग दध्व । धातुसंज्ञ--अन सनाया, अब ट्रा गतिनिवृत्तौ । प्रातिपदिक---- तत् तु न बाचित् स्वभावसमवस्थित इति संसार पुनर् मान्य एक शाश्वत रहता है, अतः जीव द्रव्याने से अवस्थित है । (२) जहाँ मनुष्यपर्याय विलीन
ना और पर्याय उत्पन्न झुप्रा तो यहाँ जो उत्पाद है वही दिलब है लो दोनोंका आधारभूत धोव्यवान जीवनध्य अवस्थित रहा । (३) पर्यावदृष्टिसे देखे जानेपर जहाँ देवपर्याय उतान
पा मनुष्यपर्याय विलीन हुआ तो उत्पाद अन्य है, विलय अन्य है सो देव जीव अन्य रहा, मनुष्यजीव प्रत्य रहा यों जीव प योसे अननस्थित रहा । (४) जैसे जीवद्रव्य पर्यायोंसे प्रति "क्षा मानवस्थित है ऐसे ही सभी द्रव्य एर्शयोंसे अनबस्थित हैं । (५) जब जीव पुदाल स्वमावश्याय में होते हैं व धर्मादिक शेष द्रय सदैव स्वभान पर्यायमें होते हैं तो वहाँ समपरिधान
होलेसे पर्यायोसे द्रव्यकी अनवस्थितत्त्र ज्ञान नहीं होती है । (६) द्रध्याथिकन यसे जीव नित्य DAE पर्यायाथिकन यसे जीव अनित्य है । (७) जहाँ मोक्षपर्यायका उत्पाद है और संसारपर्याय
का विनाश है वहाँ उत्पाद विनाया ही भिन्न है, किन्तु उन दोनों का आधारभूत सहज परमास्मादप वहींका वहीं एक है।
"सिद्धान्त -- (१) जीव पर्यायोंके रूपसे अनवस्थित है। दृष्टि१- सत्तागौणोत्पादव्ययग्राहक नित्य अशुद्ध पर्यायाथिकन य (३७) ।
प्रयोग-पर्यायोंसे अन्य अन्य होकर भी पर्यायोंके अाधारभूत एक प्रात्मद्रका की दृष्टि द्वारा पायोंको सहज स्वभावानुरूप होने देने का ज्ञानानुभूतिरूप पौरुष होने देना ॥ १५६ }}
अब जीवके अनवस्थितपनाका हेतु प्रगट करते हैं---तस्मात् तु] इसी कारण [संसारे] संसारमे [ स्वभावसमवस्थितः इति ] स्वभावसे अवस्थित ऐसा [कश्चित् नास्ति] कोई नहीं
[पुनः] और [संसरतः] संसरण अर्थात् गतियोंमें भ्रमण करते हुये [द्रध्यस्य] जीव द्रव्य की क्रिया] किया हो तो संसारः] संसार है।
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SAINAR