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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथ कुतो मनुष्यादिपर्याधेषु जीवस्य स्वभावाभिभवो भवतीति निर्धारयति----
गारणारयतिरियसुरा जीवा खलु णामकम्मणिवत्ता। A गा हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ॥११८॥
तर नारक तिर्यक सुर, प्राणी है नामकर्मसे निवृत ।
इससे कर्मविपरिणत, आत्मा न स्वभावको पाता ।।११।। नजारकतिर्यक सुरा जीवाः खलु नामकर्मनिताः । न हि ते लब्धस्वभावा: परिणममानाः स्वकर्माणि ।।
अमी मनुष्यादयः पर्यापा नामकर्मनिवृत्ताः सन्ति तावत् । न पून रेतावतापि तत्र जीवस्य स्वभावाभिभवोऽस्ति । यथा कनकवद्ध माणिक पकङ्कगोषु माणिक्यस्य 1 यतत्र नव जीवः Famme नामसंज्ञ-रणारयतिरिबसुर जोय खलु णाम कम्मणिन्वन ण हित लद्धसहाय परिणामभाश
सम्म । धातुसंज्ञ-जीव प्राणधारणे, लभ प्राप्ती । प्रातिपदिक- नरनारातिर्यकसुर जीव खलु कामकर्मरूपसे परिणमाता है, अतः बना हुअा प्रदीप ज्योतिका कार्य कहलाता है इसी प्रकार कर्म कामस्वभावसे 'जीवस्वभावका अभिभव करके शरीरके आधारसे मनुष्यादि रूपसे परिणमता है
प्रतः उने मनुष्यादि पर्याय कर्म के कार्य कहलाते हैं । (७) कर्म और कर्मकार्य सहज परमात्मEA सबसे विपरीत हैं।
| सिद्धान्त - (१) मनुष्यादि पर्यायें कर्मजनित हैं।
दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय, विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनय, निमित्तदृष्टि, उपादान दृष्टि (४७, ४८, ५३ अ, ४६ ब) 1
। प्रयोग-कर्मजनित पर्यायोंको कष्टरूप जानकर उनसे उपेक्षा करके चैतन्यस्वरूप सहजपरमात्मतत्वमें उपयुक्त होना ।।११७॥
M अब मनुष्यादि पर्यायोंमें जीवके स्वभावका अभिभव किस कारणसे होता है ? यह निर्धारित करते हैं.--[ नरनारकतिर्यकसुराः जीवाः] मनुष्य, नारक, तिर्यच और देवरूप जीव खिल वास्तबमें नामकर्म निर्वृत्ताः] नामकर्मसे निष्पन्न हैं । [हि] वास्तवमें [स्वकर्मारिण]
अपने कर्मरूप [परिणममानाः ते] परिणम रहे वे लब्धस्वभावाः न] लन्धस्वभाव नहीं Jatin अर्थात उनको स्वभावकी उपलब्धि नहीं है।
तात्पर्य- नरनारकादि मतियोंमें जीवके स्वभावका अभिभव तो है, किन्तु जीवका प्रभाव नहीं है।
टीकार्थ----ये मनुष्यादि पर्याय तो नामकर्मसे निष्पन्न हैं, किन्तु इतनेसे भी वहाँ जीव स्वभावका अभिभव नहीं है; जैसे कि सुवर्ण में जड़े हुये माणिकबाले कंकरणों में माणिकके