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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
ae agoयादिपर्यायाणां जीवस्य क्रियाफलत्वं व्यनक्तिकम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणी सहावे । अभिभूय परं तिरियं गोरइयं वा सुरं कुदि ॥११७॥ arrant प्रकृती, शुद्धात्मस्वभावको दवा करके ।
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age तिर्यञ्च नारक व देव पर्यायमय करता ॥११७॥
कर्म नामसमाख्यं स्वभावमवात्मनः स्वभावेन । अभिभूय नरं तिचं नैरयिकं वासुरं करोति ॥ ११७ ॥ क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, तन्निमित्तप्राप्तपरिणाम: पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जीवस्य क्रियाया मूलकारणभूतायाः प्रवृत्तत्वात् क्रियाफलमेव स्युः । क्रियामावे पुद्गलानां कर्मलाभावात्सत्कायंभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मणः कार्य
नामसंज्ञ-- कम्म णामसमक्स राहावे जब अम्म सहाय पर तिरिय इव वा सुर । धातुसंज्ञ-अभिभवः सत्तायां, कुण करणे । प्रातिपदिक कर्मच नामसमास्य स्वभाव अथ आत्मन् स्वभाव नर तिरतथ्यप्रकाश - ( १ ) संसारी जीवकी पर्याय क्रिया कर्मोपाधिसन्निधिका निमित्त पाकर होनेसे प्रकृतिरचित ही हैं । (२) संसारी जोत्रके मनुष्यादि पर्यायों में कुछ भी पर्याय परिणमन स्थिर नहीं है, विनश्वर ही है । ( ३ ) संसारी जीवोंके उत्तर उत्तर पर्यायोंसे पूर्व पूर्व पर्याय नष्ट होते जाते हैं, क्योंकि पूर्व पूर्व पर्यायोंका क्रियाफल हो इस प्रकार है । ( ४ ) संसारी जीवोंकी पर्यायोंकी क्रियाका फल संसारभ्रमण है, क्योंकि वहाँ मोहका मिलन नष्ट नहीं हुप्रा । (५) संसारी जीवोंकी क्रियायें सफल हैं याने संसारभ्रमणरूप फल देने वाली हैं । (६) निर्महि रत्नत्रयपरिगत अन्तरात्माका परम धर्म निष्फल है याने संसराफल देने वाला नहीं
सिद्धान्त - ( १ ) शुद्धनयसे जीव द्रव्य रागादिविभावरूप नहीं परिणमता है । (२) शुद्ध निश्चयनयसे जीव मिथ्यात्व रागादिरूप परिणमता है ।
दृष्टि-१ - शुद्धनय, प्रतिषेधक शुद्धनय (४६, ४६ ब ) । २ - प्रशुद्ध निश्चयनय (४७) । प्रयोग-दुःखहेतुभूत, नैमित्तिक, स्वभावभूत मनुष्यादिपर्यायों को अनात्मा जानकर केवल चैतन्यस्वरूपमात्र ग्रन्तस्तस्व में आत्मत्व अनुभवनेका पौरुष होने देना ॥ ११६ ॥ अब मनुष्यादि पर्यायें जीवको क्रियाके फल हैं, यह व्यक्त करते हैं [ श्रथ ] वहां [नामसमाख्यं कर्म] 'नाम' संज्ञा वाला कर्म [ स्वभावेन ] अपने कर्मस्वभावसे [ श्रात्मनः स्वमावं अभिभूय ] श्रात्मा के स्वभावको ढककर [नरं तिर्यञ्चं नैरयिकं वा सुरं] मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देवरूप [ करोति ] कर देता है ।
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