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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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टोत्कोरोऽस्ति, तेषां पूर्वपूर्वोपमर्दप्रवृत्तक्रियाफलत्वेनोत्तरोत्तरोपमर्धमानत्वात् । फलमभिलख्येत वा मोहसंबलनाविलयनात् क्रियायाः । क्रिया हि तावच्चेतनस्य पूर्वोत्तरदशा विशिष्टचतन्यपरिणामात्मिका ! सा पुनरणोरण्वन्तरसंगतस्य परिणतिरिवात्मनो मोहसंबलितस्य द्वयणुककार्यस्येव मनुष्यादिकार्थस्य निष्पादकत्वात्सप्फलंब । सैव मोहसंबलनविलयने पुन रणोच्छिन्नाण्वन्तरसंगमस्य परिणतिरिव द्वचाककार्यस्येव मनुष्यादिकार्यस्यानिष्पादकत्वात् परमद्रव्यस्वभावभूततया परमधर्माच्या भवत्यफलैत्र ।। ११६ ।। धर्म यदि परम । मूलघात.....अस' भुवि, कुकृत्र करणे । उभयपदविवरण--एसो एषः-- ० एका० । त्ति इति ण न हि जदि यदि-नव्यय । कोई कश्चित् अन्यय अन्तः प्रयभा एक० । अस्थि अस्ति...वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । किरिया विधा राहाणिवत्ता स्वभानिवृता अफला-प्रथमा एकवचन । धम्मो धर्मः णिप्फलो निाफल परमो परम:-प्रथमा एकवचन। निरुक्ति-करणं क्रिया, भवनं भायः, धरणं धर्मः । समास.-.-स्वभावेन नित्ता स्वभावनिर्वृता, च फलं विद्यते यस्याः सा अफला, निर्गतं फलं यस्मात् स निष्फल: परा मा विद्यते यत्र स: परमः ।। ११६ ॥ नानाविध अन्य ग्रन्य है।
टीकार्थ-इस विश्व में अनादिकर्मपुद्गलकी उपाधिके सद्भावके कारणसे जिसके प्रति क्षण विपरियामान होता रहता है। ऐसे संसारी जीनको किया वास्तव में प्रकृति निष्पन्न ही है। इसलिये उसके मनुष्यादि पायों में से कोई भी पर्याय 'यही है ऐसी टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्याय पूर्व पूर्व पर्यायोंके नाश में प्रवृत्त क्रियाफलरूप होनेसे उत्तर-उत्तर पर्यायोंके द्वारा नष्ट होती हैं अथवा मोहके साथ मिलनका नाश न होने से क्रियाका फल तो मानना ही चाहिये । वास्तवमें क्रिया चेतनकी पूर्वोत्तर दशासे विशिष्ट चैतन्यपरिणामस्वरूप है । और, वह क्रिया दूसरे अगुके साथ युक्त अगुको परिणति द्वथरगुक कार्यको निष्पादक होने की तरह मोहके साथ मिलित आत्माकी परिणति में, मनुष्यादि कार्यक्री निष्पादक होनेसे सफल ही है; और जैसे दूसरे अरगुके साथ का सम्बन्ध जिसका नष्ट हो गया है, ऐसे अणुकी परिणति द्वयणुक कार्यको निष्पादक नहीं है, उसी प्रकार मोहके साथ मिलनका नाश होनेपर द्रव्यको परमस्वभावभूत होनेसे 'परमधर्म' नामसे कहीं जाने वाली वही क्रिया मनुष्यादि कार्यकी निष्पादक न होनेसे अफल ही है ।
प्रसंगविवरण-----अनंतरपूर्व गाथामें सर्वविरोधपरिहारिणी सप्तभंगीका अवतार किया गया था। अब इस गाथामें यह बताया गया है कि जीवकी मनुष्यादि पर्यायें कर्माधीन होनेके कारण विनश्वर होनेसे शुद्धनिश्चयसे जीवस्वरूप नहीं है और क्रिया फलपनेके कारण उनका प्रत्यपना है।
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