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सहजानन्दशास्त्रमालायां
तथाहि न हि मनुजस्त्रिदशो वा सिद्धो वा स्यात् न हि त्रिदशो मनुजो वा सिद्धो वा स्यात् । एवमसन कथमनन्यो नाम स्यात् यनान्य एव न स्यात् । येन च निष्पद्यमान मनुजादिपर्याय जायमानवलयादिविकारं काञ्चनमिव जीवद्रव्यमपि प्रतिपदमन्यन्न स्यात् ॥ ११३ ॥ भू सताया, डुलभ प्राप्ती । उभयपद विवरण-मणु वो मनुजः देवो देव: मारसो मानुषः सिद्धो सिद्धःप्रथमा एक० । अहोज्जमाणो अभवन्-प्रथमा एकवचन कृदन्त । अण्णणभाव अनन्यभाव-द्वितीया एक० ।। ण न बा व काचं कथं-अव्यय । होदि भवति लहदि लभते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । निरुक्तिमनो जातः मनुजः, दिव्यतीति देवः, सिद्धयतिस्म इति सिद्धः । समास---'न अभ्यः अनन्यः अनन्यस्य भावः अनन्यभावः ल ।। ११३ ।। भिन्न वस्तु नहीं वह उसरूप परिणत द्रव्य ही है, अतः असत्के उत्पादकी दृष्टिमें वह द्रव्य भी अन्य अन्य हुमा समझा जाता है । (५) यह एक परमात्मद्रव्य परमार्थतः मनुष्य व देवादि पाँबसे विलक्षण है सो सब पर्यायों में यह परमात्मद्रव्य एक है, तो भी मनुष्य देवादिक नहीं। (६) किसी एक पर्याय दुसरा पर्याय नहीं पाया जाता । (७) पर्यायें सब भिन्न-भिन्न अपने अपने कालमें होते हैं । (८) कोई भी पर्याय दूसरे पर्यायके कालमें न होनेसे सब पायें अन्य अन्य ही हैं । (६) द्रव्यका हुना प्रसदुत्पाद पूर्व पर्यायसे भिन्न है।
सिद्धान्त---(१) प्रत्येक पर्याय विनाशीक है व अन्य पर्यायोंसे भिन्न है। दृष्टि---१ - सत्तागौरपोत्यादव्यय ग्राहनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय (३७)।
प्रयोग---विभावपर्यायको हेय जानकर व स्वाभाविक पर्यायको उपादेव जानकर स्था. भाविक पर्यायके स्रोतभूत चैतन्यस्वभावको उपासना करना ।। ११३ ॥
अब एक ही द्रज्यके अन्यत्य और अनन्यत्वके विरोधको दूर करते हैं-द्रव्याथिकेला द्रव्याथिक नयसे [तत् सावं] वह सब [द्रव्यं] द्रव्य [अनन्यत् ] अनन्य है; [पुनः च और [पर्यायाथिकेन] पर्यायाथिक नबसे [लत्] वह (सब द्रव्य) [अन्यत्] अन्य-अन्य है, काले तन्मयत्वात् ] क्योंकि उस समय द्रव्यको पर्यायसे तन्मयता है ।
तात्पर्य--प्रत्येक एक ही द्रव्य अपने नाना पर्यायों को क्रमशः करता रहता है, अतः द्रव्यदृष्टिसे वह वही एक है, पर्यायष्टिसे वह अन्य अन्य है।
टीकार्थ-वास्तवमें सभी वस्तुओंकी सामान्य विशेषात्मकता होनेसे वस्तुका स्वरूप देखने वालोंके क्रमशः सामान्य और विशेषको जानने वाली दो परिवे--(१) द्रध्याथिक और (२) पर्यायाथिक ये हैं । इनमें पर्यायाथिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके जब मात्र तुली हुई द्रव्याथिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व-पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीवसामान्यको देखने वाले और विशेषोंको न देखने वाले जीवोंकों