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प्रवचनम्बर --- सप्तदशाङ्गी टीका अथ सत्ताद्रध्ययोगुणगुणिभावं साधयति
जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्टो । सदवट्टिदं सहावे दव्य त्ति जिणोवदेसोयं ॥ १०६ ॥ द्रव्यस्वभाव त्रितयमय, जो परिणाम वह गुण उसो सत्का ।
सुस्थित स्वभाबमें सत्, उस ही को द्रव्य बतलाया ॥१०॥ खलु द्रव्यस्वभावः परिणाम : स गुणः सदविशिष्टः। सदस्थितं स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोऽयम् ॥१०॥ .. द्रव्यं हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति प्राक् प्रतिपादितम् 1 स्वभावस्तु द्रव्यस्य परिणामोऽभिहितः । य एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः, स एव सदविशिष्टो गुण इतोह साध्यते । यदेव हि द्रव्यस्वरूपवृत्तिभूत मस्तित्वं द्रव्यप्रधान निर्देशात्सदिति संशब्यते तदविशिष्ट
नामसंज्ञ-ज खलु दवराहाव परिणाम त गुण सदविसिट्ठ सद्अबट्ठिव सहाथ दब्व ति जिणावदेस इम । धातुसंज्ञ-अवि सेस भेदने, अव ट्ठा गति निवृत्ती तृतीयगणी। प्रातिपदिक---यत् खलु द्रव्यस्वभाव कुछ न रहा । (७) लक्षणभेद वाला ही अतद्भाव मानने पर प्रदेशभेद वाला प्रभाव न मानने पर ही द्रव्य व गुणमें एकत्व रहता है, द्रव्य व गुरण दोनों प्रशून्य होते हैं, द्रव्य व गुरगमें अनपोहत्व रहता है।
सिद्धान्त - (१) द्रव्य और गुणमें सर्वथा अभावरूप प्रतद्भाव नहीं है । दृष्टि-१- अविकल्पनय (१६२), अशन्यनय (१७४) ।
प्रयोग- लक्षणभेदसे द्रव्य गुणका परिचय करके भेदकल्पना टूर करके एकत्वदृष्टि से अपनेको स्वरूपमात्र अनुभवना ॥१०८॥
अब सत्ता और द्रव्यका गुण-गुरिणभाव सिद्ध करते हैं-खिलु यः] वास्तवमें जो [द्रव्यस्वभावः परिणामः] द्रव्य का स्वभावभूत उत्पादव्य यध्रौव्यात्मक परिणाम है [सः] वह [सदविशिष्टः गुणः] सत्तासे अभिन्न गुणा है । [स्वभावे अवस्थितं] स्वभाव में अवस्थित [द्रध्य द्रव्य [सत्] सत् है [इति जिनोपदेशः] ऐसा जो जिनोपदेश है [श्रयम्] वही यह है ।
तात्पर्य-द्रव्य उत्पादव्ययधोव्यात्मक सत्तामें शाश्वत अवस्थित है। . टोकार्थ---द्रव्य स्वभावमें नित्य अवस्थित होनेसे सत् है, ऐसा पहले प्रतिपादित किया गया था; और द्रव्यका स्वभाव परिणाम कहा गया था । यहाँ यह सिद्ध किया जा रहा है कि जो द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम है वही 'सत्' से अविशिष्ट गुरण है । जो हो द्रव्यके स्वरूप का वृत्तिभूत अस्तित्व द्रव्यप्रधान निर्देशसे 'सत्' शब्दसे कहा जाता है उस अस्तित्वसे अनन्य । गुग ही द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम वास्तवमें भूत, भविष्यत, वर्तमान तीनों कालको स्पर्शने
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