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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
२०१ इक्यस्य गुणिन इति तयोनं प्रदेश विभामः । एवमपि तयोरन्यत्व मस्तितल्लक्षणसद्भावात् । अतअनावी ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ताद्रव्ययोविद्यत एवं गुणगुणिनोस्तभावस्याभावात् शुक्लो. तरीयवदेव । तथाहि-यथा यः किल कचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः समस्तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिकान्तः शुक्लो गुणो भवति, न खलु तदखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, यच्च किलाखिलेन्द्रियग्रामगोचरीभूतमुत्तरीयं भवति, न खलु स एकचक्षुरिन्द्रियविषयमापद्यमानः सम। तेतरेन्द्रियग्रामगोचरमतिक्रान्तः शुक्लो गुणो भवतीति तयोस्तद्भावस्याभावः । तथा या कि
लाश्रित्य वतिनी निगुणकगुणसमुदिता विशेषणं विधायिका वृत्तिस्वरूपा च सत्ता भवति, न खलु तदनाश्रित्य पति गुणवदनेकगुणसमुदितं विशेष्यं विधीयमानं वृत्तिमत्स्वरूपं च द्रव्यं भवति मतद्भाव न तद्भवत् कथं एक । मूलधातु-शासु-अनुशिष्टी अदादि, पृथ क्षेपणे, भू सत्तायां । उभयपदविभरण-पविभत्तपदेसत्तं प्रविभक्तप्रदेशत्वं पुधत्त पथक्त्वं सासणं शासनं अण्णत्तं अन्यत्वं अतभावो अतदावः तम्भवं तद्भवत् एग एक-प्रथमा एकवचन । वीरस्स वीरस्य-पष्टी एकवचन । इदि इति हि ण न कप कथं अव्यय । होदि भवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन किया। निरुक्ति प्रकर्षण देशनं प्रदेशः, दश्यक है हो, क्योंकि गुए। और गुणीके तद्भावका अभाव होता है;----शुक्लत्व और वस्त्रकी तरह । वह इस प्रकार है कि जैसे एक चक्षुइन्द्रियके विषय में माने वाला और अन्य सब इन्द्रियों के समूहको गोचर न होने वाला शुक्लत्व गुण है वह समस्त इन्द्रियसमूहको गोचर होने दाला वस्त्र नहीं है; और जो समस्त इन्द्रियसमूहको गोचर होने वाला वस्त्र है वह एक चक्षु. इन्द्रियके विषयमें पाने वाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियों के समूहको गोचर न होने वाला एक्लत्व गुण नहीं है, इस कारण उनके तद्भावका अभाव है; इसी प्रकार, किसीके प्राश्रय रहने वाली, निर्गुण, एक गुणरूप बनो हुई, विशेषणभूत विधायक और वृत्तिस्वरूप जो सत्ता है वह किसीके प्राश्रयके बिना रहनेवाला, गुणवाला, अनेक गुणोंसे निर्मित, विशेष्यभूत, विघीयमान और वृत्तिमान स्वरूप द्रव्य नहीं है, तथा जो किसीके श्राश्रयके बिना रहने वाला, गुण वाला, अनेक गुणोंसे निमित, विशेष्यभूत, विधीयमान और वृत्तिमानस्वरूप द्रध्य है वह किसीके आश्रित रहने वाली, निर्गुण, एक गुणसे निर्मित, विशेषणभूत, विधायक और वृत्तिस्वरूप सत्ता नहीं है, इसलिये उनके तद्भावका अभाव है । ऐसा होनेसे ही, सत्ता और द्रव्य के कथंचित अभिन्नपदार्थत्व होनेपर भी उनके सर्वथा एकत्व होगा ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि तद्भाव एकत्वका लक्षण है । जो उसरूप होता हुआ ज्ञात नहीं होता वह सर्वधा एक कसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। परन्तु गुण-गुरणीरूपसे अनेक हो है, यह
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प्रसंगविवरण--अनंतरपूर्व गाथामें सत्ता और द्रव्यमें अनन्तिरता दिखाई गई थी।