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सहजानन्दशास्त्रमालायां
यः शुक्लो गुणः स न हारो न सूत्रे न मुक्ताफलं यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभाव: स तदभावलक्षरगोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः । तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो यच्च द्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वा सन सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभावलक्षणोज्जद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः ॥ १०७ ॥ सत्व गुण सत् च एव य पर्याय इति विस्तार यत् खलु तत् अभाव तदभाव अतद्भाव मूलधातु- परि इण गतौ विस्तृञ आच्छादने उपसर्गादर्थपरिवर्तनं । उभयपद विवरण- सत् दव्वं द्रव्यं गुणो गुणः पज्जभो पर्याय: वित्थारो विस्तारः, जो यः अभावो अभावः तदभावो तद्भावः अतभावो अतद्भावः -- प्रथमा एकo | तस्स तस्य-षष्ठी एक० च एव ति इति खलु अव्यय । निरुक्ति - विस्तरणं विरतारः । समास---- तस्य अभावः तदभावः, तस्य भावः तद्भावः न तद्भावः अतद्भावः ।। १०७ ।
है; और जो द्रव्य या अन्य गुण या पर्याय है वह सत्तागुण नहीं है - इस प्रकार एक दूसरे में जो 'उसका प्रभाव' अर्थात् 'तद्रूप होनेका प्रभाव' है वह 'तद् प्रभाव' लक्षण वाला 'अतद्भाव' है जो कि अन्यत्वका कारण है ।
प्रसंगविवरण -- श्रनन्तरपूर्व गाथामें पृथक्त्व व अन्यत्वका लक्षण बताया गया था। अब इस गाथा में उदाहरण देकर श्रतद्भावका स्पष्टीकरण किया गया है ।
तथ्यप्रकाश -- - ( १ ) एक ही प्रावान्तर सत्को द्रव्य गुण पर्याय इन तीन रूपोंसे ज्ञान में फैलाया जाता है । ( २ ) जैसे एक हारको सफेदी गुरगको सफेद हार है, सफेद सूत है, सफेद मोती है यों तीन प्रकारसे निरखा जाता है ऐसे ही एक द्रव्यके सत्ता गुरणको सत् द्रव्य है, सत गुण है, सत् पर्याय है यों तीन प्रकारसे निरखा जाता है । (३) एक हारमें जो सफेदी गुण है वह न हार है, न सूत है, न मोती है और जो हार सूत मोती है वह सफेदी गुण नहीं यो एक में दूसरेका प्रभाव है ऐसा प्रभाव ही प्रतद्भाव कहलाता है । (४) एक द्रव्यमें जो सत्ता गुण है वह न द्रव्य है, न अन्य गुण है, न पर्याय है और जो द्रव्य, प्रत्यगुण व पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं यों एकमें दूसरेका प्रभाव है ऐसा प्रभाव ही श्रतद्भाव कहलाता है । (५) श्रतद्भाव अन्यत्व के परिचयका कारणभूत है । ( ६ ) सत्ता व द्रव्य में तद्भाव तो है, किन्तु पृथक्त्व नहीं है ।
सिद्धान्त - ( १ ) द्रव्य गुणी है सत्ता गुण है इतना अतद्भाव इन दोनों श्रभिधेयोंमें
दृष्टि--- १ - गुणगुरिणभेदक शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय (६६ब ) |
+ प्रयोग --मात्र परिचयके लिये तद्भावका प्रतिपादन जानकर प्रभावको गौर कर अपनेको स्वरूपमात्र अनुभवना ॥१०७॥