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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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ण्डस्य संहारः, स एव कुम्भस्य सर्गः, अभावस्थ भावान्तरभावस्वभावेनावभासनात् । यो च कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारी संवमृत्तिकायाः स्थितिः, व्यतिरेकमुखेनैवान्वयस्य प्रकाशनात् । यैव च मृत्तिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सर्गसंहारी, व्यतिरेकाणामन्वयानतिक्रमणात् । यदि पुनर्नेदमेवमिष्येत तदान्यः सर्गोऽन्यः संहारः अन्या स्थितिरित्यायाति । तथा सति हि केवलं न बिना प्रौव्य अर्थ । मूलधातु- अस् भुवि । उभयपदविवरण- न वा वि अघि विणा विना-अव्यय । भवो भवः भंगविहीणो गङ्गविहीन: भंगो भंगः संभवविहीणो संभवाविहीन: उप्पादो उत्पादः भंगो भगः--
टीकार्थ--वास्तवमें उत्पाद, व्यय के बिना नहीं होता और व्यय, उत्पादके बिना नहीं होता; उत्पाद और व्यय प्रीध्यके बिना नहीं होते, और प्रीव्य, उत्पाद तथा व्ययके बिना नहीं होता । जो उत्पाद है वही व्यय है, जो व्यय है वहीं उत्पाद है; जो उत्पाद और व्यय है वही ध्रौव्य है; जो ध्रौव्य है वही उत्पाद और व्यय है । स्पष्टोकरा--जो कुम्भका उत्पाद है वही मृत्पिण्ड का व्यय है; क्योंकि भावका भावान्तर के प्रभाव स्वभावसे अब भासन है । और जो मृत्पिण्डका व्यय है वहीं कुम्भका उत्पाद है, क्योंकि अभावका भावान्तरके भावस्वभावसे अव भासन है; और जो कुंभका उत्पाद और पिंडका व्यय है वहीं मृत्तिकाको स्थिति है, क्योंकि व्यतिरेकोंके द्वारा हो अन्वय प्रकाशित है । और जो मृत्तिकाकी स्थिति है वही कुम्भका उत्पाद और पिण्ड का व्यय है, क्योंकि व्यतिरेक अन्वयक! अतिक्रम नहीं करते । और फिर यदि ऐसा हो न माना जाय तो ऐसा सिद्ध होगा कि उत्पाद अन्य है, व्यय अन्य है, ध्रौव्य अन्य है । ऐसा होनेपर केवल उत्पाद खोजने वाले कुम्भकी उत्पत्तिके कारणका प्रभाव होनेसे उत्पत्ति हो नहीं होगी; अथवा असत्का ही उत्पाद होगा । और वहाँ, यदि कुम्भकी उत्पत्ति न होगी तो समस्त ही भावोंकी उत्पत्ति ही नहीं होगी । अथवा यदि असत्का उत्पाद हो तो आकाश पुष्प इत्यादि का भी उत्पाद होगा, और, केवल व्यूयारम्भक मृपिण्डका, व्ययके कारणका अभाव होनेसे व्यय ही नहीं होगा; अथवा सत्का ही उच्छेद होगा । वहाँ यदि मृपिण्ड का व्यय न होगा तो समस्त ही भावोंका व्यय ही न होगा, अथवा यदि सत्का उच्छेद होगा तो चैतन्य इत्यादिका भी उच्छेद हो जायगा, और केवल ध्रौव्य प्राप्त हो रही मृत्तिकाको, व्यतिरेक सहित स्थिति के अन्वयका अभाव होनेसे, स्थिति ही नहीं होगी; अथवा क्षणिकको ही नित्यत्व आ जायगा । वहाँ यदि मृत्तिकाका ध्रौव्यत्व न हो तो समस्त ही भावोंका ध्रौव्य ही नहीं होगा, अथवा यदि क्षणिकका नित्यत्व हो तो चित्तके क्षणिक भावोंका भी नित्यत्व हो बैठेगा । इस कारण उत्तर उत्तर व्यतिरेकोंको उत्पत्तिके साथ, पूर्व पूर्वके व्यतिरेकोंके संहारके साथ और अन्वयके अवस्थानके साथ अविनाभाव वाला द्रव्य अबाधित विलक्षातारूप चिह्न प्रकाशमान है जिसका ऐसा अवश्य सम्मत करना चाहिये।
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