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सहजानन्दशास्त्रमालायां अयोत्पादादीनां द्रव्यादर्थान्तरत्वं संहरति----
उप्पादहिदिभंगा विज्जते पजएसु पज्जाया । दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्यं वदि सव्वं ।।१०१॥ ध्रौव्य उत्पाद व्यय हैं, पर्यायोंमें व वे भि पर्यायें ।
है नियत द्रव्यमें इस कारण सब द्रव्य हो होता ॥१०१॥ उत्पादस्थितिभंगा विद्यन्ते पर्यायेषु पर्यायाः । द्रव्ये हि सन्ति नियतं तस्माद्रव्यं भवति सर्वम् ।। १०१।।
उत्पादच्ययनौव्याणि हि पर्यायानालम्बन्ते, ते पुनः पर्यादा द्रव्यमालम्बन्ते । ततः समस्तमप्येतदेकमेव द्रव्यं न पुनद्रव्यान्तरम् । द्रव्यं हि तावत्पर्याय रालम्च्यते । समुदायिनः समुदायात्मकत्वात् पादपवत् । यथा हिं समुदायो पादप: स्कन्धमूलशाल समुदायात्मकः स्कन्धमूलशाखाभिरालम्बित एवं प्रतिभाति, तथा समूदायि द्रव्यं पर्यायसमदायात्मक पर्यायैरालम्बितमेव
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' नामसंज्ञ-उप्पाददिदिभंग पज्जय दवहिणियदं त दव्व सव्च । धातुसंज्ञ-बिज्ज सत्तायां, हव अस् सत्तायां । प्रातिपदिक-उत्पाद स्थितिभंग पर्याय द्रव्य हि नियत तत् द्रव्य सर्व । मूलधातु-विद सजायां, अस् भुवि । उभयपदविवरण-उत्पादट्टिदिसंगा उत्पादस्थितिभंगा: पज्जाया पर्याया:-प्रथमा बहु । बिज्जते विद्यन्ते–वर्तमान अन्य पुरुष बहु त्रिया । पज्जएर पथविधु-सप्तमी बहु० । दध्वे द्रव्येउत्पाद, ध्रौव्य और व्यय [पर्यायेषु] पर्यायोंमें [विद्यन्ते] वर्तते हैं; [पर्यायाः] पर्याय नियत] नियमसे [द्रव्ये हि सन्ति] द्रव्यमें होती हैं [तस्मात् ] इस कारण [सर्व] वह सब [द्रव्यं भवति] द्रव्य हैं।
तात्पर्य---उत्पाद व्यय ध्रौव्यके प्राश्यभूत अंश द्रव्यमें हो होनेसे वे तीनों द्रव्यरूप
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टोकार्थ----उत्पाद, व्यय और प्रौव्य वास्तवमें पर्यायोंको पालम्बते हैं, पौर वे पर्याय द्रव्यको पालम्बते हैं, इस कारण यह सब एक ही द्रव्य है, द्रव्यांतर नहीं । द्रव्य लो पर्यायोंके द्वारा प्रालम्बित हो रहा है, क्योंकि वृक्षकी तरह समुदायो समुदायस्वरूप होता है। जैसे समु. दायी वृक्ष स्कंध, मूल और शाखाओंका समुदायस्वरूप होनेसे स्कंध, मूल और शाखाओंसे प्रा. लम्बित ही दिखाई देता है, इसी प्रकार समुदायो द्रव्य पर्यायोंका समुदायस्वरूप होनेसे पर्यायों के द्वारा प्रालम्बित ही भासित होता है । और पर्यायें उत्पादव्ययध्रौव्य के द्वारा मालम्बित हैं, क्योंकि उत्पादव्य यध्रौव्य अंशोंके धर्म हैं; बीज, अंकुर और वृक्षत्वकी भांति 1 जैसे अंशी वृक्षके बीज अंकुर वृक्षत्वस्वरूप तीन अंश, व्यय-उत्पाद ध्रौव्यस्वरूप निज धर्मोंसे प्रालम्बित एक साथ ही विदित होते हैं, उसी प्रकार अंशी द्रव्यके नष्ट होता हा भाव, उत्पन्न होता हुना भाव
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