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सहजानंदशास्त्रमालायां
श्रथ जिनोदितार्थश्रद्धानमन्तरेण धर्मलाभो न भवतीति प्रतर्कयतिसत्तासंबद्ध दे सविसेसे जो हि गांव सामणो । सहृदि सो समणो तत्तो धम्मो सतासम्बद्ध सभो, सविशेष हि जो न द्रव्य सरधाने । वह तो श्रमण नहीं है, नहि उनसे धर्मका उद्भव ॥६९॥
सत्तासंवानेतान् सविशेषान् यो हि नैव श्रामध्ये । श्रघाति न ग श्रमणः तव धर्मो न संभवति ॥ ६१ ॥ यो हि नामैतानि सादृश्यास्तित्वेन सामान्यमनुव्रजन्त्यपि स्वरूपास्तित्वेनाश्लिष्टविशे
संभवदि ॥ ६१ ॥
नामसंज्ञ -- सत्तासंबद्ध एत सर्विसेस ज हि ण एवं सामण ण त समण तत्तो धम्मण धातुसंज्ञ सद् दह धारणे, संभव सत्तायां । प्रातिपदिक- सत्तासंवद्ध एतत् सविशेष यत् हि न एव श्रामण्य न तत् से प्रत्येक द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं । ( ४ ) असाधारण गुणोंके द्वारा अनन्त द्रव्योंमें स्वपरका विवेक बनता है । ( ५ ) अनन्त द्रव्यों में स्वकीय चैतन्यात्मक द्रव्यत्वसे युक्त आत्मा स्व है, शेष सब यथोचित द्रव्यत्वमे युक्त द्रव्य पर हैं । (६) ज्ञानी जानता है कि मैं ग्रहेतुक स्वतः सिद्ध अन्तर्बहिर्मुख प्रकाशशालो स्वकीय चैतन्यमात्र त्रिकाली ध्रुव हूं । (७) अन्य द्रव्य भी अपने-अपने असाधारण गुणसे तन्मय त्रिकाली ध्रुव हैं । ( ८ ) स्वमें परका प्रत्यन्ताभाव है, परमें स्वका प्रत्यन्ताभाव है । ( ६ ) जिसने स्वपरविवेक पाया है उसके मोहांकुरकी उत्पत्ति नहीं है । (१०) स्वपरविवेक जिनागमके अभ्यास द्वारा यथार्थे वस्तुस्वरूप जाननेसे प्राप्त होता है।
सिद्धान्त - ( १ ) स्वके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे आत्मा के अस्तित्वका परिचय होता है । ( २ ) परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे श्रात्माका नास्तित्व जाना जाता है । दृष्टि१- अस्तित्वनय [१५४] २- नास्तित्वनय [१५५ ] ।
प्रयोग- श्रागम में उपदिष्ट विधिसे तत्त्वज्ञान करते हुए स्वपरविवेककी सिद्धि
पाना ॥६०॥
अब जिनेन्द्र भाषित अर्थोके श्रद्धान बिना धर्मलाभ नहीं होता, इस तथ्यको तर्कणापूर्वक विचारते हैं -- [ यः हि ] जो [ श्रामण्ये ] श्रमरणावस्था में [ एतान् सत्तासंबद्धान् सविशेषात् ] इन सत्ता संयुक्त सविशेष पदार्थोकी [न एव श्रद्दधाति ] श्रद्धा ही नहीं करता [सः ] वह [ श्रमरण: न ] श्रमण नहीं है; [ततः धर्मः न संभवति ] उससे धर्म संभव नहीं है ।
तात्पर्य - जो मुनि प्रत्येक पदार्थोंको पृथक् पृथक् सत्तामय नहीं मानता वह मुनि नहीं और न वहाँ धर्म सम्भव है ।