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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
१७१ लासमात्रमात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमनाश्रयन्तो वि. श्रान्तरागद्वेषोन्मेषतया परममौदासीन्यमवलंबमान! निरस्तसमस्तपरद्रव्यसंगतितया स्वद्रव्येरणव केवलेन संगतत्वात्स्व समया जायन्ते । अतः स्वसमय एवात्मनस्तत्त्वम् ||६४1 सहावम्मि आत्मस्वभावे-सप्तमी एक० । ठिचा स्थिताः णिहिट्ठा निदिष्टाः मुखेदबा ज्ञातव्या:-प्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया। निरुक्ति...--नि:शेषण रमन्ते स्म इति निरताः । समास--- आत्मनः स्वभाव: आत्मस्वभावः तस्मिन् आत्मस्वभावे ।।६४||
तथ्यप्रकाश--(१) परके साथ, अस्वभाव भावके साथ अपने प्रात्माका एकत्व मानने वाला अर्थात् पर्यायको हो आत्मसर्वस्व मानने वाला जीव परसमय कहलाता है । (२) पर"समय जीव रागद्वेष मोहसे युक्त होता हुआ पर द्रव्य कर्मके साथ बद्ध हो जाता है । (३) जिसकी गोदमें समस्त क्रियाकुटुम्ब पड़े रहते हैं, ऐसे इस मनुष्यपर्यायमें आत्मव्यवहार करना राग द्वेषका मूल है। (४) मनुष्यपर्यायमें प्रात्मव्यवहार करनेका कारण है ध्र व अचल चेतनात्रि - लासमात्र आत्मव्यवहारसे च्युत हो जाना (अलग हो जाना) । (५) चैतन्यविलासमात्र प्रात्म. व्यवहारसे वे पुरुष च्युत होते हैं जो मनुष्यपर्यायमें ही 'यह मैं हूं, यह मनुष्यशरीर मेरा ही है' इस अहंकार व ममकारसे ठगाये जाते हैं । (६) अहंकार ममकार जैसे विकल्पोंसे वे ही पुरुष ठगाये जाते हैं जो निरर्गल एकान्तदृष्टि रखते हैं । (७) निरर्गल एकान्तदृष्टि उनकी बनती है जो प्रात्मस्वभावका आदर करने में असमर्थ होते हुए जीव पुद्गलात्मक असमान जातीय द्रव्य पर्यायमें, इस मनुष्यप यायमें प्रासक्त रहते हैं । (८) समस्त अज्ञानका मूल मनुष्यादि असमानजातीय द्रव्यपर्यायका लगाव है । (१) जो आत्मा पर द्रव्यकी संगति तजकर केवल स्वद्रव्यसे ही युक्त होते हैं वे प्रात्मा स्वसमय हैं। (१०) परद्रव्यको संगति तजकर स्वदन्यसे ही संगत होना उनके ही संभव है जो राग द्वेष की प्रकटता हट जानेसे परम उदासीन भावको प्राप्त होते हैं। (११) परम उदासीन भावको वे ही पुरुष प्राप्त होते हैं जो समस्तक्रियाकुटुम्बसे घिरे हुए इस मनुष्यव्यवहारका प्राश्रय नहीं करते हैं । (१२) मनुष्यपर्याय व्यवहारका अनाश्रय उनके ही संभव है जो अचल चेतना विलासमात्र प्रात्मव्यवहारको स्वीकृत करते हैं। (१३) प्रचलित चेतना विलासमात्र आत्मव्यवहारको वे ही स्वीकारते हैं जो मनुष्यादि शरोरों में अहंकार ममकार न करते हुए उन शरीरोंमें रहकर भी अपनेको चेतनामात्र एकस्वरूप ही निरखते हैं । (१४) प्रचलित चेतना विलासमात्र प्रात्मव्यवहारको वे पुरुष नहीं स्वीकार कर पाते जो एकान्तदृष्टिके परिग्रह पिशाचसे अभिभूत हैं। (१५) एकान्तदृष्टिका परिग्रहपिशाच उनका दूर होता है जो सहज यथार्थस्वरूप वाले पदार्थको अनेकान्तदृष्टिसे निरखते हैं। (१६)
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