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सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ 'उवसंपयामि सम्म जसो णिबाणसंपत्ती' इति प्रतिज्ञाय 'चारित्तं खलु धम्मो : धम्मो जो सो समो ति णिष्ट्रिो' इति साम्यस्य धर्मत्वं निश्चित्य परिणमदि जेण दवं तत्काल तम्मय ति पण्णसे तम्हा धम्मपरिणदो प्रादा धम्मो मुरणेयन्वो' इति यदात्मनो धर्मस्वमासूत्रयितुमुपक्रान्तं, यत्प्रसिद्धये च 'धम्मे परिणदप्पा अम्पा जादि सुद्धसंपनोगजुदो पावदि रिणबाणासुहं' इति निणिसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगौ च विरोधिनी निध्वस्ती, शुद्धोपयोगस्वरूपं चोपर्वागतं, तत्प्रसादजौ चात्मनो ज्ञानामन्दी सहजो समुद्योतयता संवेदनस्वरूपं सुखस्वरूपं च प्रपञ्चितम् । तदधुना कथं कथमभि शुद्धोपयोगप्रसादेन प्रसाध्य परगनिस्पृहामात्मतृप्त पारमेश्वरोप्रवृत्तिमभ्युपगतः कृतकृत्यतामवाप्य नितान्तमनाकुलो भूत्वा प्रलीन भेदवासनोन्मेषः स्वयं साक्षाद्धर्म एवास्मीत्यवतिष्ठतेधर्मपना निश्चित करके परिणमदि जेण दच्वं तक्कालं तन्मयत्ति पणतं, तम्हा धम्मपरिणदो प्रादा धम्मो मुणेयको' इस प्रकार ८वी गाथामें जो आत्माके धर्मपना कहना प्रारम्भ किया और जिसकी सिद्धि के लिये 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो, पावदि णिवाणसुह' इस प्रकार ११वों गाथामें निर्वाण-सुख के साधनभूत शुद्धोपयोगका अधिकार प्रारम्भ किया विरोधी शुभाशुभ उपयोगको नष्ट किया अर्थात हेय बताया व शुद्धोपयोगका स्वरूप वणित किया तथा शुद्धोपयोगके प्रसादसे उत्पन्न होने वाले प्रात्माके सहज ज्ञान और आनन्दको प्रकाशित करते हुये ज्ञान के स्वरूपका और मुखके स्वरूपका विस्तार किया, उसको अर्थात् प्रा. त्माके धर्मत्वको कैसे कसे ही शुद्धोपयोगके प्रसादसे सिद्ध करके, परमनि:स्पृह आत्मतृप्त पारमेश्वरी प्रवृत्तिको प्राप्त होते हुये, कृतकृत्यताको प्राप्त करके अत्यंत अनाकुल होकर भेदवासना की प्रगटताका प्रलय हुआ है जिसके ऐसे होते हुये प्राचार्य 'मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ' इस प्रकार ठहरते हैं अर्थात ऐसे भावमें स्थिर होते हैं--[यः आगमकुशलः] जो भागममें कुशल हैं, निहतमोहद्दष्टिः] जिसको मोहदृष्टि हत हो गई है, और विरागचरितेअभ्युत्थितः] जो वीतराग चारित्रमें प्रारूढ़ है, [महात्मा श्रमणः] वह महात्मा श्रमण [धर्मः इति विशेषितःा 'धर्म' है इस प्रकार कहा गया है।
तात्पर्य-निर्मोह वीतरागचारित्रमें लगा आगमकुशल मुनिराज धर्मस्वरूप हैं।
टोकार्थ-जो यह आत्मा स्वयं धर्म होता है, सो यह वास्तवमें इष्ट ही है। उसमें विघ्न डालने वाली एकमात्र बहिर्मुख मोहदृष्टि हो है और वह बहिर्मोह दृष्टि आगममें कुशलता से तथा आत्मज्ञानसे नष्ट हुई अब मुझमें पुनः उत्पन्न नहीं होगी। इस कारण वीतराग चारिश्ररूपमें उभरा है अवतार जिसका, ऐसा मेरा यह प्रात्मा स्वयं धर्म होकर समस्त विघ्नोंका