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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
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वाणि द्रव्याणि स्वपरावच्छेदेनापरिच्छिन्दन्न श्रद्दधानो वा एवमेव श्रामण्येनात्मानं दमयति स खलु न नाम श्रमणः । यतस्ततोऽपरिच्छिन्न रेगुकनककणिकाविशेषाद्ध लिवावकात्कन कलाभ इव तिरुपरागात्मतत्त्वोपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो न संभूतिमनुभवति ॥ ६१ ॥
श्रमण ततः धर्म न । मूलधातु - श्रद्धा धारणे, सं भू सत्तायां । उभयपदविवरण -- सत्तासंबद्ध सत्तासंब ज्ञान संविसेसे सविशेषान एदे एतान् द्वितीया बहु० 1 जो यः सो सः समणो श्रमणः धम्मो धर्मः प्रथमा एक० | सद्दहदि श्रद्दधाति संभवदि संभवति-वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । तत्तो ततः अव्यय पंचपर्थ निरुक्ति--सतः भावः सत्ता, श्रमणस्य भावः श्रामयं तस्मिन् । समास- सत्तया संबद्धाः सत्तातान् सत्तासंबद्धान् ||६१ ॥
टोकार्थ — जो इन द्रव्योंको जो कि सादृश्य ग्रस्तित्व के द्वारा समानताको धारण करते हुए भी स्वरूपाfeared द्वारा विशेषयुक्त हैं उन्हें स्व-परके भेदपूर्वक न जानता हुआ और श्रद्धा न करता हु यों ही ज्ञानश्रद्धाके बिना मात्र द्रव्यमुनित्वसे प्रात्माका दमन करता है वह वास्तव में श्रमरण नहीं है । इस कारण जैसे जिसे रेती श्रीर स्वर्णकरणोंका अन्तर ज्ञात नहीं है, उसे घूलके घोनेसे उसमेंसे स्वर्ण लाभ नहीं होता, इसी प्रकार उस श्रमाभासमें से निर्वि कार श्रात्मतत्त्वकी उपलब्धि लक्षण वाला घर्मलाभ संभव नहीं होता ।
प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व गाथामें आगमसे स्वपरविवेक सिद्धिका कर्तव्य बताया था। अब इस गाथा में बताया गया है कि केवलित अर्थश्रद्धान के बिना धर्मलाभ नहीं होता है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) सादृश्यास्तित्व अर्थात् महासत्ता की दृष्टिसे सर्व द्रव्य समान हैं, प्रविशेष हैं, एक हैं । ( २ ) स्वरूपास्तित्व से द्रव्य अपनी-अपनी विशेषताको लिये हुए हैं । (३) स्वरूपास्तित्वसे ही स्व व परका विवेक बनता है । ( ४ ) जो पुरुष द्रव्योंको यथार्थ स्वपररूपसे नहीं जानता व न ही श्रद्धान करता और यों ही द्रव्यलिङ्गसे अपने श्रात्माको दबाता है वह वास्तव में मुनि नहीं है । (५) स्वपरविवेकसिद्धि हुए बिना द्रव्यमुनि होनेपर भी उसे धर्म उपलब्धि नहीं होती । ( ६ ) निरुपराग श्रात्मतत्त्वकी उपलब्धिको धर्मोपलब्धि कहते
सिद्धान्त - ( १ ) यथार्थं श्रद्धान् ज्ञानसे धर्ममय श्रात्माको उपलब्धि होती है । दृष्टि - १ - ज्ञाननय (१६४) ।
प्रयोग - आगमोक्त पद्धतिसे तत्वश्रद्धान करके सहज निजस्वभावदृष्टि द्वारा अधिकार aar श्रात्माकी उपलब्धि करना ||१||
अब 'उवसंपयामि सम्मं जत्तो गिव्वाण संपत्ती' इस प्रकार पांचवीं गाथामें प्रतिज्ञा करके 'चारितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति विछिट्टो' इस प्रकार ७वीं गाथा में साम्यका