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सहजानंदशास्त्रमालायां
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स द्विविधः, समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । तत्र समानजातीयो नाम यथा अनेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्यगुक इत्यादि, असमानजातीयो नाम यथा जीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यादि । गुणद्वारेणायतानैक्यप्रतिपत्तिनिबन्धनो गुणपर्यायः । सोऽपि द्विविधः स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्यारणामात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमु. दीयमानषट्स्थानपतितवृद्धिहानिनानात्वानुभूतिः, विभावपर्यायो नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतोर्णतारतम्योपदशितस्वभावविशेषानेकत्वापत्तिः । अथेदं दृष्टान्तेन द्रढयति- यथैव हि सर्व एव पटोऽवस्थायिना विस्तारसामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्य समुदायेन चाभिनिर्वय॑मानस्तन्मय एव, तथैव हि सर्व एव पदार्थोऽवस्थायिना विस्तारपर्याय मूढ परसमय। मूलधातु-भण शब्दार्थः, मुह वैचित्ये । उभयपदविवरण-अत्थो अर्थः दव्वमओ
एक०। दव्वाणि द्रव्याणि गुणप्पगाणि गुणात्मकानि पज्जाया पर्याया: पज्जयमुढा पर्यायमूढा: मय है। और द्रव्य एक है प्राश्रय जिनका, ऐसे विस्तारविशेषस्वरूप गुणोंसे रचित होनेसे गुणात्मक है । और पर्यायें-जो कि अायतविशेषस्वरूप हैं वे जिनके-~-लक्षण कहे गये हैं ऐसे द्रव्योंसे तथा गुणोंसे रचित होनेसे द्रव्यात्मक भी हैं, गुणात्मक भी हैं । उसमें अनेक द्रव्यात्मक एकताको प्रतिपत्तिका कारणभूत द्रव्यपर्याय है । वह दो प्रकार है-समानजातीय और असमानजातीय । उनमें समानजातीय वह है-जैसे कि अनेक पुद्गलात्मक द्विअणुक त्रिअणुक इत्यादि। असमानजातीय वह है, जैसे कि जीव पुद्गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि । गुण द्वारा प्रायतकी अनेकताको प्रतिपत्तिका कारणभूत गुणपर्याय है । वह भी दो प्रकार है-स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । उनमें समस्त द्रव्योंके अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थानपतित हानिवृद्धिरूप नानापनकी अनुभूति स्वभावपर्याय है । रूपादिके या ज्ञानादिके स्व परके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्थामें होने वाले तारतम्यके कारण देखने में पाने वाले स्वभाव विशेषरूप अनेकत्वकी आपत्ति विभावपर्याय है । अब इस कथनको दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं--
जैसे सम्पूर्ण पट स्थिर विस्तारसामान्यसमुदायसे और प्रवाहरूप हुये प्रायतसामान्यसमुदायसे रचित होता हुआ तन्मय ही है, इसी प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ 'द्रव्य' नामक अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायसे और दौड़ते हुये प्रायतसामान्यसमुदायसे रचित होता हुआ द्रव्यमय हो है । और जैसे पटमें, अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदाय या प्रवाहरूप प्रायतसामान्यसमुदाय गुणोंसे रचित होता हुआ गुणोंसे पृथक् न पाया जानेसे गुणात्मक ही है, उसी प्रकार पदार्थोंमें, अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदाय या अन्वयरूप प्रायतसामान्यसमुदाय-जिसका नाम
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