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प्रवचनसार... सप्तदशाङ्गी टीका
११३ अय परोक्षज्ञानिनामपारमार्थिकमिन्द्रियमुखं विचारयति---
मणुप्रासुरामरिंदा यहिदा इंदियेहिं सहजहिं ।
असहता ते दुक्खं रमति विसरासु रुम्मसु ।। ६३ ॥ .... नृसुरासुरेन्द्र पीडित, प्राकृतिक इन्द्रियों के द्वारा हो।
उस दुखको न सहन कर, रमते हैं रम्य विषयों में ॥३॥ मतुमासुरामरेन्द्रा: अभिद्रुता इन्द्रियः गजैः 1 असहमानास्ता रमन्ते विषयेषु रम्येषु ।। ६३ ।।
अमीषां प्राणिनां हि प्रत्यक्षज्ञानाभावात्परोक्षज्ञानमुपसाता तत्सामग्रीभूतेषु, स्वरसत एवेन्द्रियेषुः मंत्री प्रवर्तते । अथ तेषां ता मैत्रोमुपगतानामुदीरामहामोहकालानलकवलिताना सप्तायोगोलानामिवात्यन्तमुपात्ततृष्णानां लद्दाखवेगमसहमानानो व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येनु
नामसंज्ञ---.मगुआगुरामारद अहिददुद इन्द्रिय महज अाहत न दुवण विराय म । धातुसंज्ञ-अभि इस सप्ता, सह सहने, 'रम क्रीडायां । प्रातिपदिक---मनुजामुग़मरेन्द्र अभिल इन्द्रिय गहज असहमान तत् दुःख विषय रम्य । मूलधानु - अभि द्रुज हिंसायां, यह मर्पण, रमु शीडाया । उभयपदविवरण--गणआसुरामरिंदा मनुजासुरामरेन्द्राः अहिदा अभिगुताः असहना असहमाना:-प्र० बहु० : इंदि यहि इन्द्रियः सहजेहि सहज-तृतीया बहु । तं तत् दुःवग्वं दुःख-द्वितीया एका० । रमति रमन्ते--वर्तमान० अन्य० बहुः । होना ॥६॥
अब परोक्ष ज्ञान वालोंके अपारमाणिक इन्द्रियमुखको विचारते हैं ---- [मनुजासुराम। रेन्द्राः] मनुष्येन्द्र अर्थात् चक्रवतों अमरेन्द्र और सुरेन्द्र [सजः इन्द्रियः] प्राकृतिक इन्द्रियों से [अभिद्र ता] पीड़ित होते हुए [तद् दुःखं] व उस दुःखको असहमानाः] सहन न कर सकते हुए [रम्येषु विषयेषु] रम्य विषयोंमें [ रमन्ते] रमण करते हैं ।
तात्पर्य---संसारके बड़े इन्द्रियजनानो भो इन्द्रियविषयोंकी तृष्णावी पीड़ाको न सहकर कल्पित रम्य विषयों में रमण करते हैं ।
टोकार्थ-प्रत्यक्षज्ञान के प्रभावके कारण परोक्षज्ञान का प्राश्रय लेने वाले इन प्राणियों के उस परोक्षज्ञानकी सामग्नोरूग इन्द्रियों के प्रति निजरससे (स्वभावसे) ही मैत्री प्रवर्तती है । उन इन्द्रियोंमें मैत्रीको प्राप्त उदयप्राप्त महामोहरूपी कालाग्निसे ग्रस्त तप्त लोहके गोलेकी तरह उत्पन्न हुई है, अत्यन्त तृष्णा जिनके उस दुःखके वेगको सहन न कर सकने वाले उन प्राणियोंके व्याधिके प्रतिकारके समान है। इसलिये इन्द्रियां व्याधि समान होनेसे और विषय व्याधिके प्रतिकार समान होनेसे छम्मस्थोंके पारमार्थिक सुख नहीं है।
प्रसङ्गविवरण----अन्तरपूर्व गाथामें यह श्रद्धा कराई गई थी कि पारमार्थिक आनंद के वली प्रभुके ही है । अब इस गाथामें बताया गया है कि परोक्षज्ञानियोंका इन्द्रियसुख अपार