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सहजानन्द शास्त्रमालायां
येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षगुख गुधापान दूरवतिनो मृगतृष्णाम्भोभारमेवाभव्याः पश्यन्ति । ये पुनरिमिंदानीमव बचः प्रतीच्छन्ति ते शिवथियो भाजनं समासन्न भक्ष्याः भवन्ति । य तु पुरा प्रतीच्छन्ति ते तु दुरभव्या इति ।।६२॥
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लिपलीच्छन्ति-वर्तमान लन् अन्य का बहवचन क्रिया । ते अभव्या अभव्याः भव्या भव्या... प्र. वह । गुणिण श्रुत्वा-असमाप्तिको किया । तं तत्-द्वितीया एक० । निक्ति-भवितुं योन्या: व्याः) समासविगतानि घातीनि येषां ते विगतधातिनःषां विगतनातिनां ।। ६२ ।।
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रमाथि की रूढ़ि है: परन्तु जिनके घातिकम नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवलो भगवान के, स्वभावप्रतिबालके लाभाव के कारण और अनाकुलताके कारण सुखके यथोक्त कारणका और लक्षाका सद्भाव होनेसे पारमार्थिक सुख है.---यह श्रद्धा करने योग्य है। वास्तव में जिनके ऐसी श्रद्धा नहीं है वे मोक्षसुखके मुधापानसे दूर रहने वाले अभध्य मृगतृष्णाके जलसमूहको देखते हैं। और जो उस वचनको इसी समय स्वीकार करते हैं के मोक्षलक्ष्मोक भाजन आसन्नभन्य हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूरभव्य हैं।
प्रसंगविवरण-..-अनन्तरपूर्व गाथामें केवलजानकी प्रानन्दरूपताका निरूपण किया गया था । अब इस गाथामें बताया गया है कि केवली भगवान के ही पारमार्थिक प्रानन्द है।
तथ्यप्रकाश- (१) मोहग्रस्त जीवोंके सुखाभासको जो मुख कहनेकी रूहि है वह वास्तविक नहीं है । (२) मुखाभास अति इन्द्रियजन्य सुख कष्टरूप ही है, क्योंकि वह सुखाभास आत्मस्वभावका घात करता है और प्राकुलतासे व्याप्त है। (३) केवली भगवान का आनन्द अर्थात् अतीन्द्रिय प्रानन्द पारमाथिक अानन्द है। (४) अतीन्द्रिय अानन्द निवि कला नसीम सहज परम श्राह्लादस्वरूप है, क्योंकि कहीं स्वभावका घात नहीं और वह पूर्ण निराकुलतामय है । (५) जिनको प्रभुके सहज प्रानंदको श्रद्धा नहीं हैं ये तृष्णाग्रस्त मोक्षानन्दामृत दूरवर्ती जीव खोटी होनहार वाले हैं। (६) जो प्रभुके सहज प्रानन्दकी श्रद्धा करते हैं और ऐसे ही निज सहज प्रानन्दकी रुचि रखते हैं वे मोक्षलक्ष्मोके पात्र हैं, निकटभव्य हैं । (७) के वली भगवानमें सहज परम प्रानन्द है यह श्रद्धा निज सहज प्रानन्दकी रुचिकी साधिका है ।
सिद्धान्त -- (१) शुद्धस्वरूपको भावनाके प्रसादसे शुद्ध पर्यायका प्राविर्भाव होता है और कमोंका क्षय होता है।
दृष्टि-... १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकन य [२४] ।
प्रयोग-निजविकासके अर्थ प्रभुविकासके स्वरूपकी श्रद्धा कर उम विकासके प्राधारभूत सहज चैतन्यस्वभावकी दृष्टि कर स्वपरविभागरहित शाश्वत सहज चतन्यस्वभाव में उपयुक्त
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