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प्रवधनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
११५ शनार्यादन्यावषस्यादिभिस्तृष्णाव्यक्तिभिरुपेतत्वात् अत्यन्ताकुलतया, विछिन्न हि सदसवेनोदगच्याक्तिसउद्योदयप्रवृत्तत्तयाऽनुभवत्याद्भूतविपक्षत या, बंधकारमा हि सद्विषयोपभोगमार्गानु. लग्न रागादिदोष सेनानुसारसंगच्छमानधनकर्मपांमुघटलत्वादुददुःसहत या, दिपमं हि सदभिवद्धिरिहाणिपरिणतत्वादत्यन्त विसंष्टुलतया च दुःख मेव भवति । अर्शवं पुण्यमपि पापवद्धःखमा. धनमायातमः ॥७६॥ MAथा अध्यय 1 निषित-बाध्यते अनोति माया, बन्धन बन्धः, चमार सामः (णम अवलय) । समासबाधया सहित वा०, बन्धस्य कारण विगाः समः यस्मात् तत् विपमं ।।७।। कारण है । (६) हानि-वृद्धिरूप परिणत होते रहने से इन्द्रियसुख विषम है। (७) पराधीन माधासहित विनाशीक बन्यकारणभूत विषम इन्द्रियसुख पुण्य जन्म होनेपर भी दःख ही है । MEE) अहो पुण्य भी पापकी तरह दुःखसाधन बन जाता है।
सिद्धान्त-(१) पुण्पजन्य होने पर भी इन्द्रियसुख दुःखरूप ही है। दृष्टि-१-- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)।
प्रयोग--इन्द्रियसुखसे, उसके निमित्त भूत पुपयकर्मसे, पुण्यकर्मके निमित्त भूत शुभोपयासे उपेक्षा कर के सहज चैतन्यस्वरूगमें उपयोग लगाकर सहज विश्राम पाना 11७६।।
। अब पुण्य और पापको अविशेषताको निश्चित करते हुए उपाहार करते हैं.--[एवं] म प्रचार पुण्यपापयोः] पुण्य और पाप में [विशेषः नास्ति] फर्क नहीं है इति] यों [य] जो न हि मन्यते] नहीं मानता [ मोहसंछन्नः] वह मोहसे आच्छादित होता हुआ [घोरं अपार संसार] घोर अपार संसारमें [हिण्डति] परिभ्रमरण करता है।
तात्पर्य बन्धहेतु होनेसे पुण्य पाप दोनोंमें फर्क नहीं है, एसा जो नहीं मानता वह इस भयानक संसारमें भटकता रहता है।
। टीकार्थ-यों पूर्वोक्त प्रकारसे शुभाशुभ उपयोग के द्वैतकी तरह और सुख दुःखके द्वैत की नरह परमार्थसे पुण्य पापका द्वैत भी नहीं टिकता, क्योंकि दोनोंमें अनात्मधर्मत्वको अविशेषता है । परन्तु जो जीव उन दोनों में सुवर्ण और लोहको बेडीको तरह अहंकारमय अन्तर मामता हामहमिन्द्रपदादि-सम्पदायोंके कारणभूत धर्मानुरागका अत्यन्त गाह रूपसे अवलम्बन करता है, वह जीव वास्तव में चित्त भूमिके उपरक्त होने से शुद्धोपयोग शक्तिका तिरस्कार किया है जिसने, ऐसा बर्तता हुआ, संसारपर्यंत शारीरिक दुःखका ही अनुभव करता है । MANE प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें पुण्यजन्य भी इन्द्रियमुख की बहुत प्रकारसे दुःखबता बताई गई थी। अब इस गाथा पुण्य और पापमें अविशेषपनेका निश्चय कराकर
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