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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
रस्येव भवति नाम नानाविधो बन्धः । ततोऽमी अनिष्टकार्यकारियो मुमुक्षुणा मोहरागद्वेषा: सम्यक षित्वा क्षपणीयाः ॥ ८४ ॥
पतित्व | सुलधातु-जनी प्रादुर्भाव दिवादि, सं क्षं क्षये कृतात्वस्य गुका निर्देशे क्षपि । उभयपद विवरणमोहेण मोहेन रागेण रागेन दोमेण द्वेषेण तृतीया एक परिणदस्त परिणतस्य जीवस्य जीवस्य पष्ठी एक० । जायदि जायते वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन । विविहो विविधः बंधो बन्धः - प्रथमा एक० । तम्हा तस्मात् पंचमी एकवचन । ते प्र० हु० । खइदव्या संक्षपयितव्याः प्रथमा बहु० कृदन्त किया । निरु (वित — मोहन मोहः, रंजनं रामः: द्वेषणं द्वेषः, जीवतीति जीवः बन्धनं बन्धः ॥
८४ ॥
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परिमित होते हुए इस जीवको घास के ढेरसे ढके हुए खड्ड को प्राप्त
होने वाले, हथिनीरूपी haritra area और विरोधी हाथीको देखकर उत्तेजित होकर उनकी ओर दौड़ते हुए हाथीकी भांति afar प्रकारका बंध होता है; इसलिये मुमुक्षु जीवको अनिष्ट कार्य करने वाले ये मोह, राग और द्वेष यथावत् निर्मूल नष्ट हों, इस प्रकार कसकर नष्ट किये जाने चाहिये | प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में मोहको तीन भूमिका कही गई थीं। अब इस में उन तीनों भूमिकाटोंको नष्ट करनेका कर्तव्य बताया गया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) वस्तुस्वरूपके ज्ञानसे रहित जीव मोह राग व द्वेषरूप से परिपत होकर विविध बन्नोसे बद्ध हो जाता है । (२) उदाहरणार्थ- बनहस्ती तृणाच्छादित गड्ढे के ज्ञानसे (मोहसे), झूठी हथिनी मात्रस्पर्शके रागसे व विषय भोगने के लिये सामने से दौड़कर पाने वाले दूसरे हाथी के द्वेषसे गड्ढे में गिरकर बन्धनको प्राप्त होता है । (३) मोह राग व द्वेष श्रात्माका अहित व अनिष्ट करने वाले हैं । ( ४ ) कल्याणार्थी पुरुषका मोह राग द्वेषको मूलतः पूर्ण नष्ट कर देनेका ग्रावश्यक कर्तव्य है । सिद्धान्त --- (१) वस्तुतः मोही जीव अपने विकारभावोंसे बंधकर क्लेश पाता है। (२) जीवके मोहादि भावका संपर्क पाकर कार्मावर्गणायें स्वयं कर्मरूप परिणत हो जाती है । (३) जीव बद्ध कर्मोंसे बँधा है ।
दृष्टि--- १ - प्रशुद्ध निश्चयनय (४७) २ उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय (५३), निमित्तदृष्टि (५३) । ३- संश्लिष्ट विजात्युपचरित प्रसद्भूत व्यवहार (१२५) ।
प्रयोग -- संसारचक्र से छूटनेके लिये स्वभावदृष्टिके बलसे मोह राग द्वेष भाव से
हटना ।। ८४ ।
अब ये राग द्वेष मोह-इन चिह्नोंके द्वारा पहिचानकर उत्पन्न होते ही नष्ट कर दिये जाने चाहियें, यह प्रगट करते हैं --- [श्रर्थे श्रययाग्रह] पदार्थका विपरीत स्वरूप में [च] और [तिर्यमनुजे करुणाभावः ] तिथंच मनुष्यों में करुणाभाव [ विषयेषु प्रसंग: च ] तथा
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