________________
१५२
समस्तमपि वस्तुजातं परिन्दितः क्षीयत एवातस्वाभिनिवेश संस्कारकारी मोहोपचयः । श्रतो हि मोहक्षपणे परमं शब्दब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपाया
न्तरम् ॥ ८६ ॥
जिनशास्त्रात्-पंचभी एक अहं अर्थान् द्वितीया बहु० । पञ्चवादीहि प्रत्यक्षादिभिः तृतीया बहु० । बुज्भदो बुध्यमानस्य-पष्टी एक० । णियमा नियमात् - पंचमी एक खीर्यादि क्षीयते वर्तमान अन्य पुरुष एक क्रिया । मोहवचयो मोहोपचयः प्रथमा एक तह्मा तस्मात् - o साथ शास्त्र-प्रथमा ए० । समाधिदव्त्रं समध्येतव्यम् प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । निरुक्ति (आस्यते अनेन इति शास्त्र (शासु अनुशिट) समास - ओहस्य उपचयः मोहोपचयः, जिनस्य शास्त्र) जिनशास्त्रं तस्मात् जिनशास्त्रात् ॥६६॥ अबाधित द्रव्य श्रुतप्रमाणको प्राप्त करके ज्ञानलीला करते हुए व उसके संस्कारसे प्रकट हुई है विशिष्ट संवेदन शक्तिरूप सम्पदा जिसके तथा सहृदय जनोंके हृदयको आनन्दका उद्भेद देने वाले प्रत्यक्ष प्रमाणसे ग्रथवा उससे अविरुद्ध अन्य प्रमाणसमूहसे तत्त्वतः समस्त वस्तुमात्रको जानने वाले जीवके विपरीताशयका संस्कार करने वाला मोहसमूह अवश्य ही नष्ट हो जाता है । इसलिये मोहका क्षय करनेमें, शब्दब्रह्मकी परम उपासना करना, भावज्ञान के अवलम्बन द्वारा दृढ़ किये गये परिणाम से सभ्यक् प्रकार सभ्यास करना सो उपायान्तर है ।
सहजानन्दशास्त्रमालायां
प्रसंगविवरण 5०वीं गाथा में बताये गये मोहक्षय के उपायके प्रसङ्गमे विविध वर्णन के बाद अनन्तरपूर्व गाथामें नष्ट किये जाने योग्य मोह रागद्वेष चिन्हों को बताया गया था । अब इस गाथामें पूर्वोक्त मोहक्षपणोपायके पूरक अन्य उपायको बताया गया है।
तथ्य प्रकाश---- ( १ ) मोहक्षपरणका पूर्वोक्त उपाय और इस गाथामें कथित उपाय यद्यपि भिन्न-भिन्न मुद्रा में है तो भी यह उपाय पूर्वोक्त उपायका पूरक है । (२) जो पहिली after है उसको सर्वप्रथम श्रागमका अभ्यास करना चाहिये । ( ३ ) आगमाभ्यास से वस्तुस्वरूपका निर्णय करना चाहिये । ( ४ ) आगमाभ्यास से जाने गये वस्तुस्वरूपको युक्ति, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे दृढ़ अवधारित करना चाहिये । (५) एकत्वविभक्त वस्तुस्वरूप के परिच्छेद के प्रसंग में सहजात्मस्वरूपका परिग्रहण करने वाले भव्यात्मा के मोहका प्रक्षय हो जाता है । (६) भावज्ञान दृढ़ हो, ऐसी पद्धतिसे शास्त्रका अध्ययन करना मोहक्षपणका दूसरा उपाय है । ( ७ ) भावभासना सहित शास्त्राध्ययन से वस्तुस्वरूप स्पष्ट जाननेपर त प्रभुको द्रव्य गुण पर्यायरूपसे जान लेना सुगम होता है ।
सिद्धान्त - १- शास्त्राध्ययन से भावभासनासहित आत्मज्ञान पाकर उसके प्रभिमुख होनेके पौरुष से निर्मोह श्रात्मतत्वका लाभ होता है । दृष्टि - १ - पुरुषकारनय [१८३] ।