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प्रवचनसार--सप्तदशाङ्गी टीका अर्थवं प्रातचिन्तामणेरपि मे प्रमादो दस्युरिति जागति---
जीवो वक्गदमोहो उबलद्धो तच्चमपणो सम्म । जहदि जदि रागदोसे मो यापागण नदि सुद्ध ॥८१॥ निर्मोह जीव सम्यक् निज आत्मतत्त्वको जानकर भो ।
यदि राग द्वष तजता, तो पाता शुद्ध आत्माको ॥१॥ जोधो व्यपगतमोह उपलब्धवांस्तत्वमात्मनः सम्यग् । जहाति वाच रागदपो र आल्गालभते शुद्धम् ।।
- एव परिणतस्वरूपेरगोपायेन मोहमसायर्यापि सम्यगात्मतत्वमुपलभ्यापि यदि नाम "रागद्वेषों निर्मूलयति तदा शुद्धमात्मान मनुभवति । यदि पुनः पुनरपि सायनुवर्तते सदा प्रमाद
नामसंज- जीव ववगदमोह उवला तच अप राम्म जादि रागदोश न अष्ण मुद्ध। धातृसंज्ञ---.. जहा त्यागे लभ प्राप्ती । प्रातिपदिक जीव व्यपगतमाह उपलब्ध तत्व अमन सम्यक् यदि रागद्रेण तत् आमत शछ । मलपात--जीब प्राणधारगे, मह वैचित्ये. ओहाय त्यागे, डूलभ पाती। उभयपदविवजीवो जीवदेवगदमोही व्यपगतमोहः-प्रथमा वचन । उवलो
साधपान-प्रथमा एक दन्त प्रादिको हारमें ही समाविष्ट कर उनका ख्याल छोड़कर मात्र हारको जानता है और हार पहिननेके सुख का वेदन करता है । (१५) धास्तविक जिनेन्द्रभक्तिका वास्तविक परिणाम यह है कि मोहका विलय हो जाये। .
सिद्धारत-(१) द्रव्यत्व निरीक्षण में सर्व प्रात्मा समान निरखे जाते हैं । दृष्टि-१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकन य (२१) ।
प्रयोगः-प्रभुस्मरणमें प्रभुके पर्यायको गुसा में एवं गरग व पर्यायको एक प्रवाहरूप मात्मध्य में प्रस्तनिहित करके उस चित्स्वरूपस्मरणसे स्वपरविभाग हटाकर माम चित्स्वरूप का अनुभव करना ॥१०॥ ALL मब इस प्रकार चितामणि रत्न प्राप्त कर लिया है जिसने, ऐसा होनेपर भी मेरे प्रमाद चोर विद्यमान है, इस कारण यह जगता है.... व्यपगतमोहः ] जिसने मोहको दूर लिया है और सिम्यक् प्रात्मनः तत्वं] प्रात्माके सम्यक तत्वको [उपलब्धवान] प्राप्त किया है ऐसा [जीवः] जीव [यदि] यदि रागद पौ] राग और द्वेषको जहाति] छोड़ता है [सः] तो यह शुद्ध प्रात्मानं] शुद्ध प्रात्माको [लभते] पाता है ।
तात्पर्य-निर्मोह व प्रात्मतत्त्वका ज्ञाता प्रात्मा यदि रागद्वषसे रहित हो जाता है सो वह परमात्मा होता है।
टीकार्थ-- इस प्रकार वर्णन किया गया है स्वरूप जिसका, ऐसे उपाय द्वारा मोहको
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