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थ पुनरपि पुण्यजन्यस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वमुद्योतयति-सपर बाधासहियं विच्त्रिणं बंधकारणं विसमं । जं इन्दियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥७६॥
सपर सबाध विनाशी, बन्धनकारण तथा विषम जो भो । सुख इन्द्रियसे पाया, वह सुख क्या दुःख ही सारा ॥ ७६ ॥ सुपर बाधासहितं विच्छिन्नं बन्धकारणं विषमम् । यदिन्द्रियैर्लब्धं तत्सौख्यं दुःखमंत्र तथा ।। ७६ ।। सपरत्वात् बाधासहितत्वात् विच्छिनत्वात् बंधकारणत्वात् विषमस्वाच्च पुण्यजन्यमपीन्द्रियसुखं दुःखमेव स्यात् । सपरं हि सत् परप्रत्ययत्वात् पराधीनतया, बाधासहितं हि सद
सहजानन्दशास्त्रमालायां
नामसंज्ञ - सुपर बाधासहिय विच्छिष्ण बंधकारण विसम ज इंदिय ऋद्ध त सोख दुक्ख एव तहा | धातुसंज्ञ - - विच्छिद छेदने, लभ प्राप्तौ । प्रातिपदिक-सपर बाबासहित विभिन विषम यत् इन्द्रिय लक्ष्ध तत् सौख्य दुःख एवं तथा । मूलधातु-विदिर्वीकरणे सुलभ प्राप्ती । उभयपद विवरण- सपरं बाधासहिय वाधासहित विचिष्ण विभिन्न बंधकारणं विसमं विषमं जं यत् सोनख सौख्य दुक्तं दुःखं प्रथमा एक० । इंदियेहि इन्द्रियैः तृतीया बट्ट | सद्धं लब्धं प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । एव
और मैथुनको इच्छा इत्यादि तृष्णाकी प्रगटताओंसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त श्राकुलता होने से 'विच्छिन्न' होता हुआ असातावेदनीयका उदय जिसे च्युत कर देता है, ऐसे सातावेदनीय के उदयकी प्रवृत्तिरूपसे अनुभव में आनेके कारण विपक्षको उत्पत्ति वाला होनेसे, बंधका कारण होता हुआ विषयोपभोगके मार्ग में लगी हुई रागादि दोषोंकी सेनाके अनुसार, कर्मेरजके ठोस समूहका सम्बन्ध होनेके कारण दुःसह परिणाम होनेसे; और विषम होता हुआ हृानि वृद्धिमें परिमित होनेसे अत्यन्त अस्थिर होनेके कारण वह इन्द्रियसुख दुःख ही है । लो, अब ऐसा पुण्य भी पापकी तरह दुःखका साधन ही सिद्ध हुआ ।
प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में पुण्यकी दुःखबीजताके रूपमें विजय की घोषणा की थी । अब इस गाथामें पुनः पुण्यजन्य इन्द्रियमुखका अनेक प्रकारसे दुःखपना बताया गया
है ।
तथ्यप्रकाश - - ( १ ) इन्द्रियसुख यद्यपि पुण्यजन्य है तथापि वह अनेक कारणोंसे दुःखरूप ही हैं । ( २ ) इन्द्रियसुख परनिमित्त के योग में होनेके कारण पराधीन है । ( ३ ) इन्द्रियसुख खाने पीने मैथुन यादिको इच्छात्रों रूप तृष्णाविशेषोंके कारण अत्यन्त आकुल है । (४) इन्द्रियसुख असातावेदनीयके उदय द्वारा खंडित किया जानेसे विनाशक है । ( ५ ) विषयोपभोग के मार्ग लगे हुए रागादि दोषोंके अनुसार धन कर्मवणायें बँधनेसे इन्द्रियसुख बन्धका