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सहजानन्दशास्त्रमालायां अथ पुण्यस्य दुःखबीज विजयमाधोषयति ---
ते पुगण उदिण्यातण्हा दुहिदा तण्हाहिं विमयसोयाणि । इच्छंति अणुभवति य ग्रामरणं दुक्खसंतत्ता ।। ७५ ॥
फिर तृष्णाको दुखिया, हो तृष्णासे हि विषयसौख्योंको ।
श्रामण चाहते बे, दुखसे संतप्त हों भोगें ॥ ५ ॥ ते पुनरुदीर्णत: दुन्वितार तृष्णाभिविषयमलयानि इत्यनुभवन्ति च आभरण दुःख संतप्ता: ।। ७५ 11
___ अथ ते पुनस्त्रिदशाबसानाः कृत्स्नगंसारिणः समुद्री तृष्णा: पुण्य निर्वतिताभिरपि तृष्णाभिदु:खबीजतयाऽत्यन्त दुःखिताः सन्तो गृप.तृष्णाभ्य इवाम्मासि विधयेभ्यः सौख्यान्यभिल. स्ति । तदःख संतापवेग मसहमाना अनुभवन्ति च विषयान् जलायुवा इथ, ताव द्यावत् क्षयं
नामसंज्ञ... पृण उदिगहराह दुहिद तण्डा चिरायगोवस्व य आमरणं दुबलसंतप्त । धातुसंज्ञ--इच्छ इच्छायां, अणु भन्' सत्तायां । प्रातिपदिक-तस् पुनर, उदीर्णतृणा दुसित तृष्णा विषयग़ौख्य आमरणं जोक तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजयको प्राप्त होती हुई दुःखांकुर से क्रमशः प्राकान्त हो रही दूषित रत्त को चाहती हुई और उसोको भोगती हुई मरणपर्यंत बलेशको पाती है, उसी प्रकार यह पुण्यशाली जीव भी पापशाली जीवोंकी भांति तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजयप्राप्त द.खांकुरों के द्वारा क्रमशः अाक्रान्त हो रहे हुए विषयोंको चाहते हुए और उन्हींको भोगते हुए विनाश पर्यन्त बलेश पाते हैं । इस कारण पुण्य सुखाभासप दुःखका ही साधन
प्रसंगवियर ..... अनंतरपूर्व गाथामें पुण्यक मौकी दुःखबीजता प्रकट की थी। अब इस गाथामे यह घोषित किया गया है कि पुण्य दुःखरूप फल को देता है, इसरूपमें पुण्यको विजय प्रसिद्ध है।
तथ्यप्रकाश-- (१) देवपर्यन्त सभी संसारी जीव तृष्णामें सने हैं। (२) पुण्यरचित तृष्णावोंके कारण सभी संसारी जीव दुःखी हैं। (३) तृष्णापीडित प्राणी विषयोंसे सूखकी अभिलाषा करते हैं । (४) पुण्योदय वाले मोही प्राणी तृष्णाजन्यपीडाको न सहते हए तब त विषयों को भोगते रहते हैं जब तक वे मर मिट जायें। (५) गौच तृष्णावश मरणपर्यन्त दुष्ट खून को बाहती व पोती रहती हैं, ऐसे ही पुण्योदयो मुग्ध प्राणी पापयुक्त प्राणियोंको तरह प्रलयपर्यन्त विषयों को बाहते, भोगते व कष्ट पाते हैं। (६) पुण्य सुखाभासरूप दुःखके ही साधन हैं । (४) जिनके निर्विकल्प परमसमाधिसे उत्पन्न परमाहादस्वरूप तृप्ति नहीं है उनके विषयतृष्णा अवश्य वर्तती है । (८) पाश्रयभूत कारणोंमें उपयोग जुटानेपर विषय