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सहजानन्दशास्त्रमालायां
श्रवमभ्युपगतानां पुण्यानां दुःखबीज हेतुत्वमुद्भावयति
जदि संति हि पुराणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि । जगायंति विसयतण्हं जीवाणं देवतागणं ॥ ७४ ॥
शुभ उपयोगजनित जी, नानाविध पुण्य विद्यमान हुए । करते हि विषय तृष्णा, देवों तकके भि जीवोंके ||७४ ||
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यदि सन्ति हि पुण्यानि परिणाममुद्भवानि विविधानि । जनयन्ति विषयतृष्णां जीवन्नां देवतान्तानाम् 1 यदि नामैव शुभोपयोगपरिणामकृतसमुत्पत्तीन्यनेकप्रकाराणि पुण्यानि विद्यन्त इत्य भ्युपगम्यते, तदा तानि सुधाशनानामप्यवधि कृत्वा समस्तसंसारियां विषयतृष्णामवश्यमेव.
नामसंत-जदि हि पुष्ण व परिणामसमुन्भव विवि विष्ट जीव देवदत | धातुसंज्ञ--अस सत्तावां, जण उत्पादने । प्रातिपदिक यदि हि पुण्य परिणामसमुद्भव विविध विषयतृष्णा जीव देवतान्त | मूलधातु --- अस भुवि जन जनने जुहोत्यादि जनी प्रादुर्भाव दिवादि भिजन्ते । उभयपद विवरण- जि यदि हि यच-अव्यय | पुण्याणि पुण्यानि परिणामसमुदभवाणि परिणामसमुद्भवानि विविहाणि विवि धानि प्रथमा बहु० । संति सन्ति वर्तमान अन्य० एक० किया । अणयति जनयन्ति वर्तमान अन्य पुरुष किन्तु हैं वे सब क्षुत्र । ( ३ ) ये भोग पुष्यके फल हैं, सो पुण्यका अस्तित्व तो है, पर उसका परिणाम संसार ही है ।
सिद्धान्त - (१) शुभोपयोग अशुद्धोपयोग है और नमिसिक है। दृष्टि-- १ उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय [ ५३ ] ।
प्रयोग-- शुभपयोगसे अशुभोपयोगका आक्रमण दूर करके सुरक्षित होकर सहज शुद्ध चैतन्यस्वभावका उपयोग करते हुए सहज शुद्धोपयोगी होना ॥ ७३ ॥
व इस प्रकार माने गये पुण्योंकी दुःखबीजकारणताको उद्भावित करते हैं--- [ यदि ] यदि [ परिणामसमुद्भवानि] शुभोपयोगरूप परिणाम से उत्पन्न होने वाले [विविधानि पुण्यानि च] नाना प्रकार के पुण्य [संति ] विद्यमान हैं [ देवातान्तानां जीवानां] तो वे देवपर्यन्त जीवों के [favor] विषयकी तृष्णाको [हि जनयन्ति ] हो उत्पन्न कराते हैं ।
तात्पर्य- इन्द्रादिकों के पुण्य हैं तो वे पुण्य विषयतृष्णाको हो उत्पन्न कर दुःखके ही बीज बनते हैं ।
टीकार्थ - यदि इस प्रकार शुभोपयोग परिणामसे उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकारके gor विद्यमान हैं, यह माना जाता है तो वे पुण्य देवों तक के समस्त संसारियोंके विषयतृष्णा को अवश्य हो उत्पन्न करते हैं (यह भी मानना पड़ेगा ) । वास्तवमें तृष्णा के बिना दूषित रक्त में जोककी तरह समस्त संसारियोंकी विषयोंमें प्रवृत्ति दिखाई न दे; किन्तु वह तो दिखाई