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सहजानंदाश्रमालायां
अथात्मनः स्वयमेव सुखपरिणामशक्तियोगित्वाद्विषयाणामकिंचित्करत्वं द्योतयति---- तिमिरहरा जह दिट्ठी जणस्स दीवेा गत्थि कायव्यं । तह सोक्खं समादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ॥६॥ जिसकी दृष्टि तिमिरहर, उसको नहि कार्य दीपसे ज्यौं कुछ ।
त्यों श्रात्मा सस्यमयी, वहां विषय कार्य क्या करते ॥ ६७ ॥ मिहिरा यदि दृष्टितस्य दीपेन नास्ति कर्तव्यम् । गथा नीयं रवयात्मा दिया कि तय यथा हि केषांचिन्नक्तंचराणां चक्षुषः स्वयमेव तिमिरविकरणशक्तियोगका
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नामसंज्ञ तिमिरहरा as विटिज सह सोय अन विधि धातुसंजका करणे, कुकर । प्रातिपदिक तिमिरहरा यदि दृष्टिजनकतया मोरय स्वयं आत्मन् विषय किं तत्र । मूलधातु - कुञ कर. अम् मुवि । उभयपदविवरण-मन दिली रताका द्योतन करते हैं-- (यदि ] यदि [ जनस्य दृष्टिः] प्राणीकी दृष्टि [तिमिरहरा ] निमिरनाक हो तो [ दीपेन नास्ति कर्तव्यं ] दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है, [तथा ] इसी प्रकार जहाँ [आत्मा] आत्मा [ स्वयं ] स्वयं [ सौख्यं ] सुखरूप परिणमन करता है. [ तत्र ] वहीं [ विषयाः] विषय [किं कुर्वन्ति ] क्या कर सकते हैं ।
तात्पर्य - प्राणी स्वयं सुखरूप परिणमता है विषयभूत पदार्थ जीवोंके सुखरूप नहीं परिणमते, न जोवोको सुखरूप परिणमा |
टीका--जैसे किन्हीं उल्लू बिल्ली इत्यादि निशाचरोके नेत्र स्वयमेव सत्यकारको नष्ट करने की शक्ति वाले होते हैं, इस कारण उन्हें अंधकार नाशक स्वभाव वाले दीपक प्रका शादिसे कोई प्रयोजन नहीं होता, इसी कार संसार में या मुक्ति में स्वयमेव मुखरूप परिक्षामित इस श्रात्माका अज्ञानियों द्वारा सुखसाधनबुद्धिसे व्यर्थ माने गये भी विषय क्या कर सकते हैं ? प्रसङ्गविवरण अनंतरपूर्व गाथामे शरीरको सुखसाधनताके निराकरणको दृढ़ किया था । अब इस गाथा में आत्मा की स्वयंकी सुखपरिणामशक्तिको दिखाकर विषयोंकी किञ्चि करता प्रसिद्ध की है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) यह ग्राम चाहे संसारदशामें हो या मुक्तावस्था में हो, स्वयं ही सुखरूपसे परिमित होता है । (२) संसारदशामें इन्द्रियसुख होने में भी सुखरूप परिणमता आत्मा ही है, सातादिकमदिय मात्र निमित है और विषयभूत पदार्थ श्राश्रयभूत कारण है। (३) श्राश्रयभूत विषय में उपयोग जुटाये तो वे श्राश्रयभूत कारण कहलाते है सिर भी ये स्पर्शादि विषयश्रात्मा में कुछ परिणमन नहीं करते । ( ४ ) अज्ञानीजन ही विषयोंको सुखका