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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका र प्रथवमिन्द्रियसुखस्य दुःखतायां युक्तधावतारितामामिन्द्रियसुख साधनीभूतपुण्यनिर्वतंकशुभोपयोगस्य दुःखसाधनोभूतपापनिर्वतकाशुभोपयोगविशेषादविशेषत्वमवतारयति--
गारगणारयतिरियमुरा भजति जदि देहसंभवं दुक्खं । किह सो महो व अमहो उवयोगो हदि जीवाणं ॥७२॥
नर नारक तिर्यक् सुर, यदि देहोव हि क्लेश अनुभवते ।
if कैसे वह शुभ व अशुभ, होता उपयोग जीवोंका ॥ ७२ ।। नरनारकासनकमत्त भजन्ति यदि देहसंभार दुःन्य बाथ भी बाऽभ उपयोगा भव: जीवानाम् ।७२।
* यदि शुभोपयोषजन्यसमुदीपुण्यसंपदस्त्रिदशदियोभोपयोगजन्यथयांगतपातकापदो वा नाकादययन, उभयेऽपि स्वाभाविक गुखाभावाद विशेषेण पन्चेन्द्रियात्मशारीरप्रत्ययं दुःखमेवा.
नाम- करणारयतिरियगर जदि देहसंभत्र दुख किहना मुह ब अगर उधोग जीव । धात #मज सेवाया, हव सत्तायां । प्रातिपदिक ... सरनारनियंगुर यदि देहसंभव दुःख नाथ तत् शुभ वा बाल देव है । २- इन्द्रियसखपात्रप्रधान देवोंके भी मुख स्वाभाविक नहीं है । ३-- इन्द्रियसुख बाल वैवोंके भी वास्तव में वह दुःख ही है । ४-- देव भी इन्द्रियात्मक शरोरपिशाचकी पीड़ासे रखा नए मनोश विषयों में गिर पड़ते हैं । ५-- इन्द्रियसुख क्षोभरे व्याप्त है, अतः इन्द्रियसूख हेय है । ६- इन्द्रियसुख का मूल साधन शुभोपयोग भी हेय है। - नाना दुःखोंका मुल सावन प्रभोपयोग अत्यन्त हेय है । - अशुभोपयोग अत्यन्त दय इस कारण है कि माभापयोगले उद्धारका अवसर हो नहीं मिलता । 8- शुभोपयोग अत्यन्त हेय इस कारण नहीं कि शुभोपयोगी जीवको उद्धारका अवसर मिल सकता है । १०. शुद्धोपयोग शुभोपयोग का ही होता है। अशुभोपयोगपूर्वक नहीं 1
सिद्धान्त--(१) इन्द्रियविषयदशवती जोव देहवेदनावश विषयासक्त भावसे दुःखो
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दृष्टि-- १- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याश्रिकनय [२४] । प्रयोग-विषयोपयोग छोड़कर निज सहज शुद्ध स्वभावका उपयोग करना ॥७॥
इस प्रकार युक्तिसे इन्द्रियसुखको दुःखरूप प्रगट करके अब इन्द्रियमुखके साधनीभूत - व्यको रखने वाले शुभोपयोगको दुःखके साधनीभुत पापको उत्पन्न करने वाले अशुभोपयोगसे
पविशेषताको प्रगट करते हैं---[ नरनारकतिर्यक्सराः] मनुष्य नारकी तिर्यंच और देव सभी गिरि] यदि [ देहसंभव] देहोत्पन्न [दुःखं] दुःखको [भजति] अनुभव करते हैं तो [जीवानां] जीवोका सः उपयोगः] वह अशुद्ध उपयोग [शुभः वा अशुभः] शुभ और अशुभ दो प्रकार
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