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प्रवचनसार-सप्तदशांगी टीका Foअथ शुभोपयोगसाध्यत्वेनेन्द्रियसखमाख्याति--
जुत्तो सुहेण यादा तिरियो वा माणुसो व देवो वा । भूदो तावदि कालं लहदि मुहं इन्दियं विविहं ॥७०॥
शुभयुक्त जीव होकर, तियञ्च मनुष्य देवगल वाला।
उतने काल विविध इन्द्रियसुखको प्राप्त करता है ।।७।। Mयुक्त शुभेत आत्मा तिर्यग्वा मानुषा वा बंबा वा । भूतरतावत्यानं लभने सबमन्द्रिय बिबिध । ७० ||
अयमात्मेन्द्रियसुखसाधनीभूतस्य शुभोपयोगस्य सामथ्याल दधिष्ठान भूनानां तिर्यम्मानुष. देवत्वभूमिकानामन्यतमा भूमिकामनाप्य यावत्कालमवलिष्ठते, तावत्काल मने प्रकामिन्द्रि सुखं समासादयतीति ॥७०।।
नामसंज्ञ...जुन्न सह अन्न निरिय का माम सिद्ध वा भूदलाबाद काल राह क्षय विवह । धातुसंह भव सत्तायां लभ प्राप्त । प्रातिपदिक.....युक्त शुभ आत्मन् तिच वा मानुग दंव भूत तावत् काल सख इन्द्रिय विविध । मूलधातु... भू सातायां कुलभ प्राप्ती 1 उभयपदविवरण जुनी युक्त: आम आत्मा लिरिया तिर्यम् माणुसो मानुष: देवो देवः-प्रथमा Pro ! गुहेण शुभेन-तृतीया एक० । लहदि लभतेवतमान अन्य पुरुष एक क्रिया । सह राख इदियं ऐन्द्रियं विविहं विविध-द्वितीया o ! भुवो भूत:-प्रथमा म । तावत् काल-अव्यय । निरुक्ति'-..गोभते गति शुभ: तेन, दिव्यसीति दयः ।। ७ ।। लमते प्राप्त करता है।
टीकार्थ--यह आत्मा इन्द्रियसुखके साधनभूत शुभोपयोगको सामर्थ्यसे उसके आधारभूत तिर्यंच मनुष्य और देवत्व की भूमिकामोमें से किसी की भूमिकाको प्राम करके जितने समय लक उसमें रहता है उतने समय तक अनेक प्रकारके इन्द्रियमुखको प्राप्त करता है ।
प्रसंग विवरण ---- अनन्तरपूर्व गाथामें इन्द्रियमुखके साधनके स्वरूपका निर्देश किया था । अब इस गाथामें इन्द्रियमुखको शुभोपयोग द्वारा साध्यपनेसे प्रकट किया गया है ।
तथ्यप्रकाश-१-- इन्द्रियमुखका मूल साधन है शुभोपयोग । - शुभोपयोगके सामभयंसे तियच मनुष्य व देव- इनमें से किसी भी पर्याय में प्रात्मा पाता है रहता है । ३- जब तक यह प्रात्मा लियंच मनुष्य व देव पर्याय में रहता है तब तक यह इन्द्रियसुखको प्राप्त
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- सिद्धान्त..... १- शुभोपयोगके निमित्तसे सातादि पुग-र प्रकृतियोंका बन्ध होता है । २ सातादि पुण्यप्रकृतियोंके उदय के निमित्तसे जोव इन्द्रियसुखको पाता है । ३- इन्द्रियसुखके निमित्तका निमित्त होने से इन्द्रियमुखका मूल साधन शुभोपयोग है।।
दृष्टि---१, २- निमित्तदृष्टि ५३५] । २- निमित्तपरम्परादृष्टि | * ३५] ।