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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका अथेन्द्रियसुखस्वरूपविचारमुपक्रममारणस्तत्साधनस्वरूपमुपन्यस्यति---
देवददिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीले । उवासादिसु रत्तो होवोगप्पगो अप्पा ॥६६॥
देवगुरुभक्तिमें नित, दान सदाचार अनशनादिकमें।
जो प्रवृत्त प्रात्मा वह, है सरल शुभोपयोगात्मक ॥६६॥ देवतातिगुजारा व दान वा सुशीलेषु । उपवासादिपु रक्तः भोपयोगात्मक आत्मा ।। ६६ ।।
यदायमात्मा दुःखस्य सावनीभूता द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोगभूमिका
नामसंज्ञ.....देवददिगुरुपूजा व एक दाण वा सुसील उपवासादिर मुहाच ओमप्पस अप । धातुसंज-राज रागे । प्रातिपदिक .. देवतायतिमुम्पुजा च एवं दान वा सुशील उपवासादि रक्त गुभोपयोगास्मकं आत्मन् । मूलधातु- रंज' रागे । उभयपदविवरण -- देवददिगुरुगुजास दवतायतिगुजारा सुसीलेसु में सातिशय द्युति स्तुति जिसकी प्रतिफलित है, ऐसा दिव्यस्वरूप भगवान श्रआत्मा देव है। --- जो स्वयं ज्ञान है, स्वयं प्रानन्द है, स्वयं देव है उस यात्माको सख साधनाभासोंसे क्या प्रयोजन है ? - भगवानको तरह सब जीवोंका स्वभाव है, अतः ग्रानंदाभिलाषो जीवोंको विषयावलंबन की कल्पना छोड़कर सहजानन्दस्वभावभय अंतस्तस्वकी उपासना करनी चाहिये ।
सिद्धान्त--१-- भगवान ग्रात्मा अपने ही स्वरूपसे प्रकट स्वतंत्र ज्ञानानन्द विलासका अनुभव करता है।
दृष्टि -.-१-- अनीश्वरनय [१६] ।
प्रयोग----परिपूर्ण अनाकुल रहावे लिये अपने महजानन्दस्वभावमय सहज ज्ञानस्वरूप अन्तस्तस्त्र में उपयोग रमाना ।।६८॥
अब इन्द्रियसखस्वरूप सम्बन्धी विचारको लेते हुए आचार्य इन्द्रियसखके साधनभूत शुभोपयोगके स्वरूपको समीपमें धरोहरवत् धरते हैं अर्थात् जैसे दूसरेको धरोहर बिना ममता के धरी जाती है ऐसे शुभोपविषयक बातका प्रसंग करते हुए भी उसका ममत्व न कर स्वरूप को कहते हैं---[देवतायतिगुरुपूजासु] देव, यति व गुरुकी पूजामें [दाने च एवं] और दान में [सुशीलेषु वा] एवं सुशीलोंमें | उपवासादिषु] और उपवासादिकमें | रक्तः प्रात्मा] अनुरागी प्रात्मा [शुभोपयोगात्मकः] शुभोपयोगात्मक है।
तात्पर्य---मोक्षमार्गके साधकोंकी सेवादिक शुभानुष्ठानों में अनुरागी शुभोपयोगी जीव
।
टोकार्थ-जब यह प्रात्मा दुःखको साधनोभूत द्वेषरूप तथा इन्द्रियविषयकी अनुराग