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प्रवचनसार -- सप्तदशाङ्गी टीका
श्रथ मुक्तात्मसुखप्रसिद्धये शरीरस्य सुखसाधनतां प्रतिहन्ति
पप्पा
विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण ।
परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो ॥ ६५ ॥
स्पर्शादिसे समाश्रित, इष्ट विषय या स्वभावसे आत्मा ।
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परिणममान स्वयं सुख, होता नहि देहसे कुछ सुख ॥ ६५ ॥
प्राप्येष्टान् विषयान् स्पर्शः समाश्रितान् स्वभावेन । परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः || ६५|| अस्य खल्वात्मनः सशरीरावस्थायामपि न शरीरं सुखसाधनतामापद्यमानं पश्यामः, यतस्तदापि पोतोन्मत्तकरसैरिव प्रकृष्टमोहवशवर्तिभिरिन्द्रियैरिमेऽस्माकमिष्टा इति क्रमेण विषया नभिपतद्भिरसमीचीन वृत्तितामनुभवन्नुपरुद्ध शक्तिमारेणापि ज्ञानदर्शन वीर्यात्मकेन निश्वयकारण
नामसंज्ञ - इट्ठ विसय फास समस्सिद सहाव परिणममाण अप्प सयं एव सुह ण देह । धातुसंज्ञ-सम् आ सिण सेवायां, प अप्प अर्पणे, हव सत्तायां । प्रातिपदिक- इष्ट विषय स्पर्श समाश्रित स्वभाव परिणममान आत्मन् स्वयं एव सुख न देह । मूलधातु सम् आश्रित्र सेवायां, भुसत्तायां प्र आलू प्राप्तौ । उभयपद विवरण- इट्ठे इष्टान् विसए विषयान् समस्सिदे समाश्रितान् द्वि० बहु० । फासेहिं स्पर्शैः - तृतीया सुखरूप नहीं होता ।
तात्पर्य- इष्ट विषयोंका प्राश्रय कर भी जीव जब सुखी होता है तब वहाँ जीव ही सुखरूप होता है, देह सुखरूप नहीं होता ।
टीकार्थ - वास्तव में इस आत्माके सशरीर अवस्था में भी शरीर सुखसाधनताको प्राप्त हो ऐसा हम नहीं देख रहे हैं, क्योंकि तब भी, उन्मादजनक मदिराका पान कर लेने वालों की तरह प्रबल मोहके वश वर्तने वाली, 'यह विषय हमें इष्ट है' इस प्रकार विषयोंकी प्रोर दौड़ती हुई इन्द्रियोंके द्वारा प्रयोग्य परिणतिका अनुभव करता हुआ भी जिसकी शक्तिकी उत्कृष्टता रुक गई है ऐसे भी निश्चयकाररणताको प्राप्त अपने ज्ञान दर्शन वीर्यात्मक स्वभावसे परिणमन करता हुआ स्वयमेव सुखत्वको प्राप्त करता है । किन्तु शरीर प्रचेतनपना होनेसे सुखत्वपरिणतिका निश्चय कारण न होता हुआ किंचित् मात्र भी सुखत्वको प्राप्त नहीं
करता, यह सब पूर्णतया निःसंदिग्ध है ।
प्रसंगविवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथा में
बताया गया था कि जब तक इन्द्रियाँ उद्धत हैं तब तक प्रकृति से ही दुःख है । अब इस गाथामें मुक्त प्रात्मावोंके सुखकी प्रसिद्धि के लिये शरीर के सुखसाधनपनेका निराकरण किया है ।
तथ्यप्रकाश - ( १ ) शरीरसहित अवस्था में भी जीवके सुखका वास्तविक साधन शरीर