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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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विनष्ट कर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव, रूढवणस्यालेपनदान मित्र, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्यते चासो । ततः स्वभावभुतदुःख योगिन एवं जीवदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ।।६४।। प्रथमा एक । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष क. बिया । विसवत्थं विषार्थ-चयर्थे अव्यय । निक्ति-विशेषेण पयनं गमनं विषयः । समास ...रवस्य भार: स्वमात्र बभावस्य इदं स्वाभावं ।।६।। तथा जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया हो उसके कान में बकरेका मूत्र डालनेकी तरह और जिसका घाव भर जाता है उसके फिर लेप करनेकी तरह उनका विषयों में व्यापार नहीं दिखना चाहिये किन्तु उनके वह विषयप्रवृत्ति तो देखी जाती है । इससे सिद्ध हुअा कि जिनके इन्द्रिया जीवित हैं ऐसे परोक्षज्ञानी स्वाभाविक दुःख से युक्त हैं ही।
प्रसंगविचरण--- अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि परोक्षज्ञानी प्राणियोंका इन्द्रियसुख कष्टरूप है, अपरमार्थ हैं । अब इस गाथामें बताया गया है कि जब तक इन्द्रियाँ जीवित हैं तब तक दुःख होना प्राकृतिक ही है।
तथ्यप्रकाश-(१) जिनके इन्द्रियविषयवासना व रही है उनके दुःख होना प्राऋतिक बात है । (२) विषयों में रति होनेसे प्रारणीके दु:ख बाह्य विषयों के कारण नहीं, किन्तु विकारजन्य है । (३) विकारजन्य दुःखको न सह सकनेसे जीवोंकी विषय भोगने में प्रवृत्ति होती है । (४) इन्द्रियवेदना इतनी कठिन पीड़ा है कि इसके वशीभूत प्राणी निकट हो जिनमें मरण हो ऐसे भी विषयों में गिर पड़ते हैं। (५) उद्धत इन्द्रियों वाले परोक्षजानो के स्वयके विभाव जन्य दुःख है तभी वे विषयों में व्यापार करते हैं । (६) जिन प्राणियों को विषयों में प्रेम है उनको नियमसे विषयरतिके विकारसे दःख हो रहा है। (७) विषयों में प्रेम होने का कारण निजमें भेदविज्ञानका अभाव है । (८) विषयोंमें प्रेम होनेका निमित्त कारण उस प्रकारको रागवाली प्रकृतियोंका उदय है।
सिद्धान्त---(१) विभावगुणव्यञ्जनपर्याय स्वभावका प्रतिघातक होनेसे कष्ट रूप ही है । दृष्टि----- ५ --- विभावगुणव्यञ्जनपर्यायदृष्टि [२१६] ।
प्रयोग–दुःखकारक विकारोंसे, विकारके निमित्तभूत कर्मविपाकसे, कर्मबन्ध के निमि. सभूत विभावोंसे उपेक्षा करके बातोन्द्रिय ज्ञानस्वभावमें उपयोगको लगाना ॥६४।।
अब मुक्त आत्माके सुखकी प्रसिद्धिके लिये, शरीरको सुखसाधनताका खंडन करते हैं— स्पर्शः समाश्रितान्] स्पर्शनादिक इन्द्रियोंसे समाश्रित [इष्टान् विषयान् ] इष्ट विषयोंको
प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] अपने अशुद्ध स्वभावसे परिणममानः] परिणामन करता हुन्या [प्रात्मा] प्रात्मा [स्वयमेव] स्वयं ही [सुख] इन्द्रियसुखरूप होता है [देहः न भवति] देह
Smamalnायणस्यममुम
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