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प्रवचनसार----सप्तदशाङ्गी टीका अथ यावदिन्द्रियाणि तावत्स्वभावादेव दुःखमेवं वितकंयति ....
जेसि विमयेसु रदी तेमिं दुक्खं वियागा मुभावं । जड़ तं णा हि मभावं वावारो णस्थि विसयत्थं ॥६॥ जिनको विषयोंमें रति, उनके तो क्लेश प्राकृतिक जानो।
यदि हो ने प्राकृतिक दुख, विषयार्थ प्रवृत्ति नहिं होती ।।६४। । येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि ब्वाभाथम् । यदि नन्नति प्रवाभाव व्यापारी नास्त्रि विषयाणम् 11 RO येषां जीवदयस्थानि हलकानोन्द्रियारिम, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम्, किंतु स्वा.
भाविकमेव, विषयेषु रतेरवलोकनात् । अवलोक्यते हि तेयो स्तम्ने रमस्य करेगकुटनीगा स्पर्श - इव, सफरस्य बडिशामिपर वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसमुखारविन्दामोद इव, पतङ्गस्य प्रदीपा
चीरूप इव, कुरङ्गस्य मृगयुगे यस्वर इव, दुनिवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्न निपातेष्वपि विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमभ्युपगम्येत तदोपशाल शीतज्वरस्य संस्वे. दतमिव, प्रहीरादाहज्वरस्यारनालपरिक इव, निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च वाचवर्णन मित्र,
नामसंज्ञ--...ज विजय रदि त दुबख समाव जाइत ण हि सम्भाय वावार ण विसयत्थ । धातुसंज---- वि जाण अवोधने, असा सत्तायां । प्रातिपदिक-यन् विषय रति तत् दुःख स्वाभाय यदि तत् न हि स्वा
भाव व्यापार न विषयाथें । मूलधातु--विज्ञा अवबोधने, वि आ पडा व्यायाम तुदादि, पार कर्मसमाप्तो HAI चुरादि, अस् भुन्नि । उभयपदवियरण..जेसि येषां-पष्ठी बहु० । विराएर विषपु-सप्तमी बढे । 'रदी
पा रतिः--प्र० ए० तेसिं तेषांवठी वह।। दुक्तं दुःखं सगावं स्वाभावंद्विल एक० | वियाण विजानीहि- आयर्थ लोट् मध्यम पुरुष एक० किया । जइ यदि न हि-अव्यय । सम्भावं स्वाभाव वावारो व्यापार:
टोकार्थ-जिनको हतक (हत्यारो निकृष्ट) इन्द्रियां जोवित हैं, उनके उपाधिके कारण दुःख नहीं है, किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जालो है। हाथीका हथिनीरूपी कुट्टिनीके शरीरस्पर्श की तरह, मछलोका बंसी में फंसे हुए मांसके स्वादको तरह,
भ्रमरका बन्द हो जाने वाले कमलके गंधकी तरह, पतंगेका दीपकको ज्योतिके रूपकी तरह । और हिरनका शिकारीके संगीतके स्वरको तरह दुनिवार इन्द्रियबेदनाके वशीभूत होते हुए । उनके निकट याने विषयों में अभिपात होता है अर्थात् विषयोंसे नाश अति निकट है, विषय
क्षणिक हैं तो भी विषयों की प्रोर दौड़ते दिखाई देते हैं। और यदि उनका दुःख स्वाभाविक स्वीकार न किया जाये तो जिसका शीतज्वर उपशांत हो गया है, उसके पसीना पानेके लिये उपचार करनेकी तरह तथा जिसका दाह्य ज्वर उत्तर गया है उसके प्रारनालसे शरोरके परि. षेक करने की तरह तथा जिसकी अांखोंका दुःख दूर हो गया है उसके वटाचूर्ण प्रांजनेकी तरह