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प्रवचनमार-पीट
अर्थ केवलिनामेव पारमार्थिक सुखमिति श्रद्धापयति यो सति हेम परमं ति विगद्घादी | सुणिऊण ते भव्वा भच्या वा तं पडिच्छति ||३२|| farara प्रभुका सुख, सुखों उत्कृट यह वचन सुनकर । नहि श्रभव्य सरवाने भव्य हि प्रसा ॥ ६२ ॥ पति: सौख्य सुत्रेषु परममिति विवा इह खलु स्वभावप्रतिघात
मोहनीयादिकर्मजालशालिना खा
माथिको सुखमिति रूढिः । केवलिन तु भगवतप्रधानकर्मणां स्वभावप्रतिधातानावान दालत्वाच्च यथोदितस्य हेतोर्लागस्य चारमार्थिक सुखमिति श्रव । न किलेव नामसंज्ञो सोख हाते । वातु यहधारी (सहा), सुप श्रवणे तृतीयगणी प्रातिपदिक गौल्य पर विग तपाति तत् अभव्य भव्य वा तत् । मूलाधारणपणयोः हत्या याि प्रति इस इच्छायां स्वादि। उन्यपदविवरण-इ-अव्यय । गोवस्त्र समय सम्मन्वना एक । सुखेषु सप्तमी बहुरूपी
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सर्व इष्ट पा लिया, अतः केवलज्ञान अत्यंत निराकुल अनन्न ग्रानन्दमय है । (६) केवलज्ञान की प्रवस्था दुःखका साघनीभूत अज्ञान तो गर्व नष्ट हो चुका ोर यावा साधतीन परिपूर्ण ज्ञान आविर्भूत हुआ अतः वह केवलज्ञान आप ही है ।
सिद्धान्त - (१) शुद्ध परमात्मय ज्ञान धानन्द आदि का परम विकास है। दृष्टि - १ - शुद्धभेदविषयो द्रव्यविकता शुद्ध सूक्ष्म ऋजुगुय [ ५१ ] प्रयोग - पने आत्माकी स्वस्थता के लिये अपने केकी अर्थात् एकत्वविभक्त शायक Taran aerस्वको प्राराधना करना ||३१||
अब केवलज्ञानियोंके ही पारमार्थिक सुख होता है. यह श्रद्धा कराते है - [ विगत घातिनां] धातिकर्म नष्ट हो गये हैं जिनके उनका [ सौर्य ] मुख [ सुखेषु परमं नवं मुखमें [ है [ster] यह सुनकर [न अति] जो श्रद्धा नहीं करते [ते अभव्याः] वे [अभव्य हैं [ भय्याः वा ] और भव्य [ तत् | उसे [ प्रतीच्छन्ति ] स्वीकार करते है, उसकी श्रद्धा करते हैं।
तात्पर्य- केवलज्ञानियोंके अनन्तमुखका जिनके अज्ञान नहीं के मिथ्यादृष्टि है । टीकार्थ- इस लोक में मोहनीयादि कर्मजाल वालोंके स्वभावप्रतिघातके कारण और आकुलता के कारण सुखाभास होनेपर भी उस खाभासको 'सुख' ऐसा कहनेकी पा