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प्रबदनसार---सप्तदशाङ्गी टीका अथ पुनरपि केबलस्य सुखस्वरूपतां निरूपयन्नुपसंहरति..
णाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी। णट्टमणिट सब इटं घुगण जे तु तं लद्ध ॥६१ ।।
ज्ञान अर्थान्तगत है. दृष्टि है लोकालोकमें विस्तृत ।
नष्ट अनिष्ट हुआ सब, जो परमेष्ट वह लब्ध हुआ ।।६१॥ जानमन्तिमतं लोकालोकेषु विस्तृता अप्टि: । नाटनिटं मिट पुनयनु तल्लव्यम् ।। ६१ ॥
स्वभावप्रतिघाताभावहतुकं हि सौख्यम् । आत्मनो हि शिजती स्वभावः तयोर्लोकालोकविस्तृतत्वेनान्तिगतत्वेन च स्वछन्दविजमितवाद्भवति प्रतियाताभावः । ततस्तहेतुक सोश्यमभेदविवक्षायां केवलस्य स्वरूपम । किन केवलं सौख्यमेव, सर्वानिष्टप्रहागात सर्वेष्टोपMAD नामसंज-णोण अत्यंतगय लोयालोय हित्य डा दिदि भट्ट अगिट सव्य इस प्ण जनुन लद्ध ।
तिस-दिस प्रेक्षयो, नत्स ना, लभ पाती। प्रातिपदिक ज्ञान अर्थान्तगत लोकालोक। तता दृष्टि नष्ट अनिष्ट सर्व इष्ट पुनर् यत् तु लब्ध । मूलधातु... शिर दर्शने. "श अदर्शन दिवादि, झुलभ प्राप्नो। उभयपदविवरण–णाणं ज्ञानं अत्थंगदं अन्तिगण नरटं अगिट्ट अनिष्टं सब्वं सर्च इ→ दुष्टं जं यत् कल्पनाघोंसे थककर खेद किया करता है । (5) धालिया कोका अभाव होनेपर खेदका प्राय. मन न रहनेसे केवलज्ञान में खेद बिल्कुल असंभव है। (१०) केवलज्ञान परिणमन उस प्रतिभा में ही है जिसके धातिया कर्म क्षीण हो चुक्रने से विद्यमान ही नही है । (११) निरुपाधि ज्ञान केवलज्ञान केवलज्ञानरूप प्रतिसमय परिणमन हो-होकर अनन्तकाल अनन्तों केवलज्ञानरूप परिणमता रहेगा। (१२) परमात्य पदार्थके परिणमन न हो तो केवलज्ञान नष्ट ही हो जाअगा। (१.३) त्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेयोंके प्राकारादिके अनुरूप प्रतिबिम्बित अन्तर्शयाकारमय मात्माको जाननेरूप परिणमना यही केवलज्ञान परिणमन है तो यह स्वाभाविक है और यह परिण मन सहज प्रानन्दका अविनाभावी है । (१४) केवलज्ञान सर्वथा अपरिणामी नहीं है, किन्तु वह ज्ञेयपरिवर्तन नहीं करता अर्थात् कालिक समस्त ज्ञेयाकारोंको सर्वदा जानता रहता है जो कि स्वभावानुरूप विकास है वहां खेदकी गुंजाइश ही नहीं । (१५) केवलज्ञान स्वयं सहज असीम प्रानन्दमय है।
सिद्धान्त---(१) शुद्ध प्रात्मा केवलज्ञान मय है और अनन्तआनन्दमय है । दृष्टि-१- सभेद शुद्ध सद्भूत व्यवहार [७२] ।।
प्रयोग-प्राकुलताके साधनीभूत इन्द्रियज्ञानको हेय जानकर तथा अनन्त शुद्ध सहज Jain मानन्दके परमसाधनीभूत अतीन्द्रियज्ञानको उपादेव जानकर अतीन्द्रिय ज्ञान के प्रोध उपादान
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