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म्युपगमे परपरिच्छेदेन परस्य परिच्छित्तिर्भूतिप्रभृतीनां च परिच्छित्तिप्रसूतिरनङ्कुशः स्यात् । किच---स्वतोऽव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिगतं ज्ञानं स्वयं परिणाममानस्य कार्यभूतसमस्तज्ञेयाकारकारणीभूताः सर्वेऽथ ज्ञानवर्तिन एवं कथंचिद्भवन्ति, किं ज्ञातृज्ञान विभागक्लेशकल्प
नया || ३५ ।।
सहजानन्दशास्त्रमालायां
गाणं ज्ञानं प्र० ए० | आदा आत्मा-प्रथमा एक० जागेण ज्ञानेन तृतीया एक पाणं ज्ञान अध्यय परिणमते क्रियाका विशेषण । परिणमदि परिणमति जापदि जानाति वदि भवति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णन सयं स्वयं अव्यय । अट्ठा अर्थाः गाणठिया ज्ञानस्थिताः सव्वे सर्वे - प्रथमा बहु० । निरुक्ति--अर्यन्ते निश्चीयन्ते इति अर्थाः । समास । ज्ञाने स्थिताः ज्ञानस्थिताः ॥५॥
और ज्ञान भिन्न-भिन्न नहीं है । (२) भिन्न ज्ञानके द्वारा आत्मा ज्ञानी नहीं होता । (३) आत्मामें भिन्न ज्ञानका समयाय माननेपर उसका ग्रात्मामें ही क्यों समवाय होता है इसका कोई उत्तर नहीं हो सकता । ( ४ ) ज्ञानके समवायसे पहिले आत्मा ज्ञानी है या जड़ है दोनों ही विचार निराधार हैं । (५) यदि भिन्न ज्ञानसे आत्मा ज्ञानी माना जाय तो भिन्न ज्ञानसे घट पट आदि भी ज्ञानी बन जायेंगे | ( ६ ) ग्रात्मा ही उपादानरूपसे ज्ञानरूप परिणमता है । ( ७ ) श्रात्मा ज्ञानमय हैं, उसका परिचय करानेके लिये लक्षण प्रयोजनादिभेदसे भेद करके समझाया जाता है | ( 5 ) यही आत्मा की परमेश्वरता है कि अभिन्न कर्ताकरण शक्ति से यह स्वयं जानता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) ज्ञानस्वरूप आत्मा अपने द्वारा अपने आपको जानता है दृष्टि-- १ - कारककार किभेदक सद्भूतव्यवहार [ ७३ ] ।
प्रयोग अपने को अपने द्वारा अपने आपमें ज्ञप्तिपरिणत निरखनेके द्वारसे अभेदोपासना करते हुए अभिन्नकारक प्रक्रियांस उत्तीर्ण होकर ज्ञानमात्र अनुभवनेका पौरुष करना ||३५|| अब ज्ञान क्या है और ज्ञेय क्या है, यह व्यक्त करते हैं-- [तस्मात् ] इस कारण [जीवः ज्ञानं ] जीव ज्ञान है [ज्ञेयं ] और ज्ञेय [ त्रिधा समाख्यातं ] भूत भावी वर्तमान पर्यायसे तीन प्रकार में प्रसिद्ध कालिक [ द्रव्यं ] द्रव्य हैं [ पुनः द्रव्यं इति ] वह ज्ञेयभूत द्रव्य अर्थात् [आत्मा] आत्मा याने स्व [परः च ] और पर [ परिणामसम्बद्धः ] परिणामसंयुत हैं ।
तात्पर्य--- ज्ञान तो स्व आठमा है और शेष स्व आत्मा, पर आत्मा व समस्त प्रचेतन पदार्थ ये सब हैं, सभी द्रव्य ज्ञान या ज्ञेय या उभय रूपसे निरन्तर परिणमते रहते हैं । टोकार्थ - चूंकि ज्ञानरूपसे स्वयं परिणमित होकर स्वतंत्रतया ही जानता है इसलिये जोव ही ज्ञान है, क्योंकि अन्य द्रव्य ज्ञानरूप परिणमिल होने तथा जाननेमें असमर्थ हैं । और ज्ञेय, पर्त चुकी, वर्त रहो और वर्तने वाली विचित्र पर्यायोंके प्रकारसे त्रिविध कालकोटिको