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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका प्रलमथवातिविस्तरेण, अनि बारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ।।४७।। प्रथमा एकवचन । भणियं भणितं-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। निरुक्ति-अर्यते इति अर्थः तं, क्षये भवं क्षायिकं । समास-विचित्रं च विषमं च विचित्रविषमे तयोः समाहार: विचित्रविषमं ॥४७॥
(७) पूर्ण निराव रण हो जानेसे ज्ञान का अनिवार्य असोम फैलाव हो जाता है, अत: क्षायिक ज्ञान सब समय, सब जगह, सब प्रकार सबको जानता ही रहता है। (८) परमात्माका ज्ञान अर्थात् क्षायिक ज्ञान त्रिलोक त्रिकालवर्ती सर्व पदार्थको जानता रहता है, सो यह ज्ञानस्वभाव का प्रताप है इस कारण वहाँ व्याकुलता नहीं, प्रत्युत अनंत प्रानंद है । (६) घातिया कर्मों का क्षय हो जानेसे जैसे ज्ञानस्वभाव असोम विकसित हो जाता है ऐसे ही प्रानंदस्वभाव भो प्रसीम विकसित हो जाता है। (१०) ज्ञान प्रानंद आदि समस्त गुणोंका असीम विकास निश्चयतः प्रात्मप्रदेशों में ही है।
सिद्धान्त--- (१) घातियाकोपाधिरहित परमात्मा त्रिलोकत्रिकालवर्ती समस्त ज्ञेयाकारकरम्बित निर्विकार प्रात्माको जानते रहते हैं ।
दृष्टि-१-- स्वभावगुणव्यञ्जनपर्यायदृष्टि [२१२] ।
प्रयोग-नियत आत्मप्रदेशोंसे किसी किसीको ही क्रमपूर्वक जाननेको स्वभावप्रतिकूल कार्य जानकर ऐसे जाननसे विरक्त होकर निज सहज ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होकर सहज सत्य विश्राम करना ।। ४७ ।।
अब जो सबको नहीं जानता वह एकको भी नहीं जानता, यह निश्चित करते हैं[य:] जो [युगपद्] एक ही साथ [कालिकान् त्रिभुवनस्थान] तीनों कालके और तीनों लोकके [अर्थान] पदार्थोको [न विजानाति] नहीं जानता, [तस्य] उसे [सपर्ययं] पर्यायसहित [एक द्रव्यं वा] एक द्रव्य भी [ज्ञातुन शक्यं] जानना शक्य नहीं है।
तात्पर्य-जो सबको नहीं जानता वह एक पदार्थको भी पूरा नहीं जान सकता।
टोकार्थ----इस विश्व में एक आकाशद्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, असंख्य कालद्रव्य और अनंत जीवद्रव्य हैं तथा उनसे भी अनंतगुरणे पुद्गलद्रव्य हैं, और उन्हींके प्रत्येकके प्रतीत, अनागत और वर्तमान ऐसे तीन प्रकारोंसे भेद वाली निरवधि वृत्तिप्रवाहके भीतर पड़ने वाली अनंत पर्यायें हैं । इस प्रकार यह समस्त याने द्रव्यों और पर्यायोंका समुदाय ज्ञेय है इनमें ही एक कोई भी जीवद्रव्य ज्ञाता है । अब यहाँ जैसे समस्त दाह्यको जलाती हुई अग्नि समस्त दाह्य जिसका निमित्त है ऐसे समस्त दाह्याकार पर्यायरूप परिणमित सकल
PHERA
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