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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका
प्रतीयमानं नित्यमसत्तथा कर्मोदयादेको व्यक्ति प्रतिपन्नं पुनर्व्यवत्यन्तरं प्रतिपद्यमानं श्राविकभ प्यसदनन्तद्रव्य क्षेत्रकालभावानाक्रान्तुमशक्तत्वात् सर्वगतं न स्यात् ॥५०॥
कमसो क्रमशः अव्यय 1 जाणं ज्ञानं खाइर्ग क्षायिक सर्व सवंगप्र० एक पच्च प्रतीत्य- असमाप्तिकी क्रिया । गाणिम्स ज्ञानिनः यष्टी एक तत्प्रथमाएर भग वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक । निरुक्ति-नानं अम्बास्तीति ज्ञानी तस्य क्षवे गवं वा । समाससर्वषु गतं सर्वगतं || ५० ॥
प्रसंग विवरण -- ग्रनन्तरपूर्व गाथामें सबको भी नहीं जानता । अब इस गाथा में जानके सर्वगतपना सिद्ध नहीं होता है ।
बताया गया था कि जो एकको नहीं जानना बह बताया गया है कि कमलप्रवृत्तिसे जाननहार
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तथ्य प्रकाश--- ( १ ) जो ज्ञान क्रम क्रमसे एक एक अर्थका श्राश्रय करके जानता है वह सर्वगत अर्थात् सर्वज्ञ नहीं हो सकता । ( २ ) क्रमवर्ती ज्ञान एक अर्थका जानेगा तब पहिलेके अन्य अर्थका आश्रय न रहा सो वह ज्ञान नित्य न रहा तो ससके पदार्थों को तो नहीं जान सकता । ( ३ ) जो ज्ञान एक अर्थका प्राश्रय करके जानने के बाद उसको जानन छोड़कर अन्य अर्थको ग्राश्रय करके जाननेके बाद उसका जानना छोड़कर अन्य अर्थको आश्रय करके जानता है वह ज्ञान क्षायिक तो नहीं हो सकता सो कैसे श्रनन्तयोंके ज्ञानतरूपः परिणमेगा ।
सिद्धान्त - ( १ ) यह जीव क्रमवर्ती ज्ञान द्वारा अपने आपको जानता है। दृष्टि--- १- अस्वभावनव [१८०] ।
प्रयोग- क्रमवर्ती ज्ञानको अपनी अस्वभाववृति जानकर उसमें स्थान करके पर को जाननेका विकल्प न कर विशुद्ध प्रतिभासमात्र अपनेको निरखना || ५० ॥
युगपत् प्रवृत्तिके द्वारा ही ज्ञानका सर्वगतपना सिद्ध होता है, यह निश्चित करते -- [त्रकाल्यनित्यविषमं ] तीनों कालमें सदा विषम [सर्वत्र संभवं ] सर्व क्षेत्र में रहने वाले [[चित्र] विविध [सकल ] समस्त पदार्थोंको [जैनं] जिनदेवका ज्ञान [ युगपत् जानाति ] एक साथ जानता है [ श्रहो हि] अहो ! कैसा अदभुत [ज्ञानस्य माहात्म्यम् ] यह ज्ञानका माहात्म्य
तात्पर्य---युगपदवृत्तिसे जानने वाला ज्ञान ही सर्वज्ञ होता है ।
टीकार्थ- वास्तव में क्षायिक ज्ञान सर्वोत्कृष्टताका स्थानभूत उत्कृष्ट माहात्म्य वाता है और जो ज्ञान एक साथ ही समस्त पदार्थों का अवलम्बन लेकर लेता है वह ज्ञान कोकीर्णन्यायसे अवस्थित समस्त वस्तुवोंका ज्ञेयाकारपना होनेसे जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है,