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सहजानन्दशास्त्रमालायां
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अथेन्द्रियारणां स्वविषयमात्रेऽपि युगपत्प्रवृत्त्यसंभवाद्ध यमेवेन्द्रियज्ञानमित्यवधारयति -
फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य पुग्गला होति। अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते गोव गेण्हंति ॥५६॥ स्पर्श रस गंध वर्ण रु, शब्द पुद्गल विषय हैं प्रक्षोंके ।
उसको भी ये इन्द्रिय, युगपत् नहि ग्रहण कर सकतों ॥५६॥ स्पर्शो रसश्च गन्धो वर्णः शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्तान्नव गृहन्ति ।। ५६ ॥
इन्द्रियाणां हि स्पर्शरसगन्धवर्णप्रधानाः शब्दश्च ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः । अथेन्द्रियैर्युगपत्तेऽपि न गृह्यन्ते, तथाविधक्षयोपशमनशक्तेरसंभवात् । इन्द्रियाणां हि क्षयोपशमसंज्ञिकाया:
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नामसंज्ञ-फास रस य गंध वण्ण सद्द य पुग्गल अक्ख त अक्ख जूगवं त ण एव । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां, गिण्ह ग्रहरणे । प्रातिपदिक----स्पर्श रस च गन्ध वर्ण शब्द च पुद्गल अक्ष तत् अक्ष युगपत् तत् न एव। मूलधातु-भू सत्तायां, ग्रह उपादाने । उभयपदविवरण----फासो स्पर्शः रसो रसः गंधो गन्धः वण्णो वर्ण:-प्र० एक० । य च जुगवं युगपत् ण न एव-अव्यय । पुग्गला पुद्गला:-प्र० बहु० । अक्खाणं अक्षाणांवर्ण [शब्दः च] और शब्द [पुद्गलाः] पुद्गल हैं, वे [अक्षारणां भवन्ति] इन्द्रियोंके विषय हैं [तानि अक्षारिण] परन्तु वे इन्द्रियाँ [तान्] उन्हें भी [युगपत्] एक साथ [न एव गृहन्ति] ग्रहण नहीं करती, नहीं जान सकती।
तात्पर्य--इन्द्रियाँ तो अपने विषयको भी एक साथ ग्रहण नहीं कर सकती।
टोकार्थ-वास्तव में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण हैं प्रधान जिनमें ऐसे पुद्गल व पौद्गलिक शब्द इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं। किन्तु, वे भी इन्द्रियोंके द्वारा एक साथ ग्रहण नहीं किये जा पाते, क्योंकि उस प्रकारके क्षयोपशमनको शक्ति असंभव है । इन्द्रियोंको क्षयोपशम नामक अन्तरंग ज्ञातृशक्तिकी कौवेकी अाँखकी पुतलोकी तरह क्रमिक प्रवृत्ति होनेसे अनेकतः जाननेके लिये असमर्थपना होनेसे द्रव्येन्द्रिय द्वारोंके विद्यमान होनेपर भी समस्त इन्द्रियोंके विषयोंके विषयभूत पदार्थोका ज्ञान एक ही साथ नहीं होता, क्योंकि इन्द्रियज ज्ञान परोक्ष है।
प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें इन्द्रियसौख्यके साधनीभूत इन्द्रियज्ञानको हीन दिखाकर हेय बताया गया था। अब इस गाथामें इन्द्रिय ज्ञान की हेयताके समर्थन में बताया गया है कि इन्द्रियोंको अपने संकुचित विषयमें भी एक साथ प्रवृत्ति नहीं हो सकनेसे इन्द्रिय ज्ञान हेय ही है।
तथ्यप्रकाश-(१) स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ग्रह योग्य हैं स्पर्शप्रधान पुद्गल । (२)