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सहजानन्दशास्त्रमालायां
अथातीन्द्रिय सौख्य साधनीभूतमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमभिष्टौति - जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेमु दिदियं पच्छणां । सयलं सगं च इदरं तं गाणं हवदि पच्चक्खं ॥५४॥ ज्ञान प्रत्यक्ष वह जो, द्रष्टाका ज्ञान जानता होवे ।
मूर्त मूर्त अतीन्द्रिय, प्रच्छन्न स्व पर समस्तोंको ॥ ५४ ॥
यत्प्रेक्षमाणस्यामूर्त मूर्तेष्वतीन्द्रियं च प्रच्छन्नम् । सकलं स्वकं च इतरत् तद्ज्ञानं भवति प्रत्यक्षम् ॥ ५४ ॥ अतीन्द्रियं हि ज्ञानं यदमूर्तं यन्मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियं यत्प्रच्छन्नं च तत्सकलं स्वपरविकल्पान्तःपाति प्रेक्षत एव । तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियेषु परमाण्वादिषु द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु क्षेत्र प्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु कालप्रच्छन्नेष्व सांप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायानन्तर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्थाव्यवस्थितेष्वस्ति द्रष्टृत्व
नामसंज्ञ-ज पेच्छंत अमुत्त मुत्त अदिदिय च पच्छण्ण सयल सग च इदर त णाण पच्चक्ख । धातुसंज्ञ - हव सत्तायां । प्रातिपदिकयत् प्रेक्षमाण अमूर्त मूर्त अतीन्द्रिय च प्रच्छन्न सकल स्वक इतर तत् ज्ञान प्रत्यक्ष । मूलधातु भू सत्तायां । उमयपदविवरण --- जं यत् अमुत्तं अमूर्त अदिदियं अतीन्द्रियं पच्छन्न प्रच्छन्नं सयलं सकलं - द्वि० एक० । पेच्छदो प्रेक्षमाणस्य षष्ठी एक० । मुत्तेसु मूर्तेषु सप्तमी बहुवचन ।
ज्ञान [श्रमूर्त] अमूर्तको [ मूर्तेषु ] मूर्त पदार्थों में भी [प्रतीन्द्रियं ] इन्द्रियागोचर परमाणु आदि को [ च प्रच्छन्नं ] और प्रच्छन्नको, [स्वकं च इतरत् ] ऐसे स्व तथा पररूप [ सकलं ] इन सबको जानता है [ तत् ज्ञानं ] वह ज्ञान [प्रत्यक्षं भवति ] प्रत्यक्ष है ।
तात्पर्य -- प्रतीन्द्रिय ज्ञान अमूर्त इन्द्रियागोचर गुप्त स्व पर सभी पदार्थों को प्रत्यक्ष रूपसे जानता है ।
टोकार्थ - - जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थोंमें भी प्रतीन्द्रिय है, और जो प्रच्छन्न ( ढका हुम्रा) है, उस सबको जो कि स्व और पर इन दो भेदों में समा जाता है उस सबको प्रतीन्द्रिय ज्ञान श्रवश्य देखता है। अमूर्त धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदिकोंमें और मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय परमाणु आदिकोंमें तथा द्रव्यप्रच्छन्न काल आदिकों में, क्षेत्रप्रच्छन्न अलोकाकाशके प्रदेश आदिकों में, कालप्रच्छन्न असाम्प्रतिक ( प्रतीत अनागत) पर्यायों में तथा भाव प्रच्छन्न स्थूलपर्याय अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्यायोंमें, स्व और परकी व्यवस्थासे व्यवस्थित उन सबमें ही उस अतीन्द्रिय ज्ञानके दृष्टापन है, प्रत्यक्षपना होनेसे । वास्तव में प्रनन्त शुद्धिका सद्भाव प्रगट हुआ है जिसके ऐसे चैतन्यसामान्यके साथ अनादिसिद्ध सम्बन्ध वाले एक ही प्रक्ष नामक ग्रात्मा के प्रति जो नियत है जो इन्द्रियादिक अन्य सामग्रीको नहीं ढूंढता, और जो अनन्तशक्तिके सद्भाव