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प्रवचनसार-सप्तदशाङ्गी टीका शक्तिभिस्तथाविधेभ्य इन्द्रियेभ्यः समुत्पद्यमानं परायत्तत्वात् कादाचित्कं, क्रमकृतप्रवृत्ति सप्रति. पक्ष सहानिवृद्धि च मोगामिति कृत्वा ज्ञानं च सौख्यं च हेयम् । इतरत्पुनरमूर्ताभिश्चैतन्यानविधायितीभिरेकाकिनीभिरेवात्मपरिणामणक्तिभिरतथाविधेभ्य: स्वाभाविकचिदाकारपरिणामेभ्य: समुत्पद्यमानमत्यन्तमात्मायत्तत्वान्नित्यं, युगपत्कृतप्रवृत्ति निःप्रतिपक्षमहानि वृद्धि च मुख्यमिति कृत्वा शान सौख्यं चोपादेयम् ।। ५३ ।। अदिदिय इंदियं इन्द्रियं णाणं ज्ञान सोक्त सौख्यं न यत् तत्-प्रश्रमा एक । रोयं जप-ए कदम किया । निक्सि-न मूर्ती अमूर्त, सुखयन सुखं तग्य भावः सोय । समास इन्द्रिय अतिका अलीरिद्रय ।। ५३ ।।
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तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञान दो प्रकारका होता है...--- १ - मूर्त इन्द्रियज ज्ञान, २- प्रमूर्त प्रतीरिद्रय ज्ञान 1 (२) सौख्य भी दो प्रकारका है.---- १-- मूर्त इन्द्रियज सौख्य, २- अमूर्त प्रतीन्द्रियज सौख्य । (३) उपादान दृष्टि से भूत क्षायोपशमिक उपयोग शक्तियों द्वारा निमित्तदृष्टि से भूत इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न हुमा ज्ञान व सौख्य मूर्त इन्द्रियज कहलाता है । (४) प्रमूर्त अकेली चैतन्यपरिणमन शक्तियोंके द्वारा उत्पन्न हुअा इन्द्रियातीत ज्ञान व सौख्य अमूर्त अतीनिद्रय कहलाता है । (५) मूर्त इन्द्रियज ज्ञान व सौख्य पराधीन होनेसे अनित्य है। (६) मूतं इन्द्रियज ज्ञान व सौख्य पराधीन होनेसे 'मसे अपनी प्रवृत्ति कर पाता है। (५) मूर्स इन्द्रियज ज्ञान व सोख्य अज्ञानसे व दुःख से सहित है । (८) मूर्त इन्द्रियज ज्ञान व सांस्य हानि व वृद्धि से सहित है । (६) विनश्वर क्रमवर्ती प्रज्ञानरूप दुःखव्याप्त विषम ज्ञान एवं सौख्य हेय : है । (१०) अमूर्त प्रतीन्द्रिय ज्ञान व सौख्य पूर्ण प्रात्माधीन होनेसे नित्य है, एक साथ परिपूर्ण प्रवर्तने वाला है, प्रज्ञान व दुःखसे बिल्कुल रहित है एवं हानि वृद्धिसे रहित असीम परिपूर्ण होनसे उपादेय है।
सिद्धान्त(.) प्रभुका ज्ञान व सौख्य प्रात्मोत्थ व स्वाभाविक है । (२) मोही प्राणियों का ज्ञान व सौख्य निमित्तापेक्ष एवं विकृत है ।
दृष्टि----१-- शुद्धनिश्चयनय [४६] । २-- अशुद्धनिश्चयनय ४७] । PART प्रयोग---हेयभूत मूर्त इन्द्रियज ज्ञान ब सौख्यसे उपेक्षा करके उपादेय भूत अमूर्त व प्रतीरिद्रय ज्ञान एवं सौख्यके लाभके लिये अमूर्त सहज चतन्यस्वरूपका अवलंबन करना ॥५३॥
। अब अतीन्द्रिय सुखका साधनीभूत अतीन्द्रिय सान उपादेय है, ऐसा अभिस्तवन करते है अर्थात् उसका प्रास्थाके साथ गुणानुवाद करते हैं-- [प्रेक्षमाणस्य यत्] देखने वालेका जो
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