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प्रवचनमार-सप्तदशाङ्गी टीका
अयं ज्ञानिनो शतक्रियासद्भावेऽपि क्रियाफलभूतं बन्धं प्रतिषेधयन्नुपसंहरतिविपरिणमदि सा गेहदि उपज्जदि गोव तेसु जाणण्णव ते यादा प्रबंधगो तेा पण्णत्तो ॥ ५२ ॥
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परिणमता न न गहता, उन प्रथमें न श्रात्मा उपजता ।
उनको विजानता भी, यह इस ही से अबन्धक है ॥५२ ||
लोपि परिणमति न गृह्णाति उत्पद्यते नैव तेष्वर्थेषु । जानन्नपि नात्मा बन्धकीन व्रज्ञः ॥ ५२ ॥ इह खलु 'उदयगदा कम्मंसा जिरणवरवसदेहिं रियदिणा भणिया । तेसु त्रिमूढो रत्ता दुट्टो वा बंधमभवदि ॥ इत्यत्र सूत्रे उदयगतेषु पुद्गलकर्माशिषु सत्सु संचेतयमानी मोहराग द्वेषपरिणतत्वात् ज्ञेयार्थ परिणमनलक्षणया क्रियया युज्यमानः क्रियाफलभूतं बंधमनुभवति, न तु ज्ञानादिति प्रथममेवार्थपरिणमन क्रियाफलवेन बन्धस्य समर्थितत्वात् । तथा गण्हदि गोत्र प मुञ्चदि परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं शिरवसेस ।।'
नामसंज्ञ- - विणण एव त जट्ट त अत्त अबंधन तु पण्णत्त धातुसंज्ञ परिणम प्रत्वं गिष्ट ग्रहणे, जद पञ्ज गती आण अवबोधनं । प्रातिपदिकन अधिन एव तत् अर्थ तत् आत्मन् अत पण मूलधातु-परि गम प्रहृत्वे, ग्रह ग्रहणे, उत् पद गती, ज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण न रहने क्षायिक ज्ञान नित्य है । ( ७ ) सदा सर्वप्रकारके सर्व पदार्थको सर्वात्मप्रदेशोसे जानने वाला ज्ञान सर्वगत कहलाता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) व्यवहारसे श्रात्मा सर्व पदार्थों का ज्ञाता है । (२) शुद्ध निश्चयसे मात्मा परिपूर्ण प्रतिभासमय अपने आपका ज्ञाता है ।
दृष्टि
-१- स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार [१०५ ] । २- शुद्ध निश्चयनय
[४६ ] ।
प्रयोग सर्वज्ञ होने का विकल्प नहीं करना, क्योंकि वीतराग होने का तो वह फल हो आत्मीय आनन्द तो वीतरागता के कारण है ऐसा जानकर अविकारस्वभाव सहज अन्तस्तत्वमय अपना अनुभव करना ।। ५१ ।।
ज्ञानीके (केवलज्ञानी ग्रात्माके) शतिक्रियाका सद्भाव होनेपर भी क्रियाफलरूप का निषेध करते हुए उपसंहार करते हैं-- [ श्रात्मा] आत्मा [ तान् जानन् अपि ] पदार्थो को जानता हुआ भी [न अपि परिणमति ] न तो उसरूप परिणमित होता, [ न गृह्णाति ] न ही उन्हें ग्रहण करता, [न एव तेषु प्रर्थेषु उत्पद्यते ] और न ही उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न होता है [ते] इस कारण [ अबन्धकः प्रज्ञप्तः ] वह ज्ञानी अबन्धक कहा गया है ।