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राहजानन्यशास्त्रमालायां अथ कमकृतप्रवृत्त्या ज्ञानस्य सर्वगतत्वं न सिद्धयतीति निश्चिनरेति
उम्पाजदि जर्जाद णाणं कमसो अटे पडुच्च गाणिम्स । तं गणेव हवदि णिच्चं हा खाइगं गणेव सब्बगदं ॥५०॥
अर्थोका आश्रय कर, क्रमसे यदि ज्ञान जीवका जाने ।
तो वह ज्ञान न होगा, नित्य न सर्वगत नहीं क्षायिक ।।५।। उत्पद्यते यदि ज्ञान क्रमशोऽर्थान् प्रतीत्य ज्ञानिनः । नन्नव भान नित्यं न क्षाधिक नैव सर्वगतम् ।। ५.० ।।
यत्किल कमेणकमर्थमालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञानं तदेकार्थालम्बनादुत्पन्न मन्यार्था लम्बनात्
नामसंज्ञ--- जादणाण कमसो अट्ट णाणितणाव णि ण खाग एव सध्यगद । धातुसंजहेव सत्ताया, उद पज्जं गतौ । प्रातिपदिक... यदि ज्ञान क्रमश: अर्थ ज्ञानिन तत् न एव नित्यं न आयिक न एक सर्वगत । मुलधातु --भु सत्तायां, उत् पद गती। उभयपदविवरण--जदि यदि ण न णिच्च नित्यं तो सबका ज्ञान होना असंभव है। (११) प्रतिभासमान सबका ज्ञान न हो तो एक पूर्ण स्वयंका ज्ञान होना भी असंभव है।
सिद्धान्त... सर्वज्ञदेव विश्वप्रतिभासमय निज प्रात्माको ही जानते हैं। दृष्टि ---- १-- शुद्भनिश्चयनय (४६)।
प्रयोग --- अन्य पदार्थको जानना अशक्य ही है, अन्यपदार्थविषयक प्रतिभासमय निज प्रात्माका ही जानना हुआ करता है ऐसा जानकर अन्य पदार्थको जाननेका विकल्प भी न कर अपने आपको ही निरखनेका पौरुष करना ॥४६॥
अब यह निश्चित करते हैं कि क्रमशः प्रवृत्तिसे ज्ञानको सर्वगतता सिद्ध नहीं होती ---- [यदि] यदि [ज्ञानिनः ज्ञान] प्रात्माका ज्ञान क्रमशः] क्रमशः [अर्थात् प्रतीत्य] पदार्योका अवलम्बन लेकर [उत्पद्यते] उत्पन्न होता है [तत्] तो वह ज्ञान [न एव नित्यं भवति] न तो नित्य हो सकता, [न क्षायिक न क्षायिक हो सकता [न एव सर्वगतम् ] और न सर्वगत हो सकता ।
तात्पर्य-ब्रामप्रवृत्तिसे जानने वाला ज्ञान नित्य, क्षायिक व सर्वव्यापक नहीं हो सकता।
टीकार्थ----जो ज्ञान क्रमश: एक एक पदार्थका अबलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है, वह एक पदार्थ के अवलम्बन से उत्पन्न हुअा दूसरे पदार्थ के अवलम्बन से नष्ट हुअा नित्य नहीं होता हमा तथा कर्मोदयसे एक व्यक्तिको प्राप्त करके फिर अन्य व्यक्तिको प्राप्त करता हुमा क्षायिक भी न होता हुमा, अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको व्यापने में असमर्थता होने के कारण सर्वगत नहीं है।
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