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सहजानन्दशास्त्रमालायां
अर्थकमजानन सर्व न जानातीति निश्चिनोति
दव्यं अणंतपजयमेगमणं ताणि दबजादाशि। ण विजाणदि जदि जुगवं किथ सो सब्वाणि जागादि ॥४६॥ अनंत पर्यायसहित, एक स्वयं गव्यको न जाने जो।।
सब अनंत द्रव्योंको, वह युगपत् जान नहि सकता ॥४६॥ द्रव्यमनन्तपयमेवामनन्तानि द्रव्यजातानि । न विजानाति यदि युगपत् कथं स सर्वाणि जानाति ।। ४६ ।।
प्रात्मा हि तावत्स्वयं ज्ञानमयत्वे सत्ति ज्ञातृत्वात् ज्ञान मेय । ज्ञानं तु प्रत्यारगति प्रतिभासमयं महासामान्यम् । तत्तु प्रतिभासमयानन्तविशेषत्वापि । ते च सर्वव्यायनिबन्धनाः । अथ यः सर्वद्रव्यपर्यायनि बन्धनानन्तविशेषव्यापिप्रतिभासमयमहासामान्यरूपमात्मानं स्वानुभव प्रत्यक्षं न करोति स कथं प्रतिभासमयमहासामान्यव्याप्यप्रतिभासमयानन्त विशेषनि बन्धन भूत.
नामसंश--दव अणंतपज्जय ग अणंत व जाद यदि जूग किल सन । धातुसं जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-द्रव्य अनंतपर्यय एक अनंत द्रव्यशाल न यदि युगपत् बाथं तत् सर्व । मूलधातु-विज्ञा अवबोधने । उभयपदविवरण -दव द्रव्य अणतपजयं अनंतपर्याय-हितीया एक० । अणं
प्रयोग-स्वयं सहज जो जानने में प्राय, प्राधे, हमको तो सहन प्रतिभासमय निज आत्माको जानना चाहिये ॥ ४८ ।।
__ अब एकको न जानता हुमा ज्ञान सबको नहीं जानता, यह निश्चित करते हैं--- [यदि] यदि [अनन्तपर्याय] अनन्त पर्याय वाले [एक द्रव्यं] एक प्रध्यको अर्थात् एक प्रात्मद्रव्यको [न विजानाति] नहीं जानता [सः] तो वह [युगपद्] एक ही साथ [सर्वारिण अनन्तानि द्रव्यजातानि समस्त अनन्त द्रव्यसमूहको [कथं जानाति] कैसे जान सकता ?
. तात्पर्य----सर्वज्ञ याकारमय एक अपने आत्माको न जानतेपर सबका जानना से हो सवता ?
टीकार्थ-प्रात्मा तो वास्तव में स्वयं ज्ञानमयपना होनेपर ज्ञातृत्वके कारण ज्ञान हो है; और ज्ञान प्रत्येक प्रात्मामें रहता हुप्रा प्रतिभासमय महासामान्य है। वह प्रतिभासमय अनन्तविशेषोंमें व्यापी है; और वे विशेष सर्वद्रव्यपर्यायनिमित्तक है । अब जो अात्मा सर्व द्रव्यपर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे अनन्त विशेषों में व्याप्त होने वाले प्रतिभासमय महासामान्य रूप प्रात्माका स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता, वह प्रतिभासमय महासामान्य द्वारा व्याप्य प्रसिभासमय अनन्त विशेषोंके निमित्तभूत सर्व द्रव्यपर्यायोंको कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा ? अर्थात् नहीं कर सकेगा इससे यह फलित होता है कि जो आत्माको नहीं जानता बह सबको नहीं