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प्रवचनसारः
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अधैव सति तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिचित्कर एवेत्यवधारयति ----
पुण्याफला अरहंता तेसिं किरिया पुणहो हि अोदया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग ति मदा ॥४५॥ ____ अर्हन्त पुण्यफल हैं, यद्यपि उनकी क्रिया हि औधिको ।
तो भी मोहादिरहित, अतः उसे क्षायिकी मानी ।। ४५ ।।। गुण्यफलाः अहन्तस्तेदां श्रिया पूनहि औदयिकी । मोहादिभिः विरहिता दम्मा ग शामिकीत मला ।।४५
अर्हन्तः खलु सवालसम्यकपरिपक्वपुण्यकल्पवाद प्रफला एवं भवन्ति । किया तु तेषां या A काचन मा सर्वाधि तदुदयानुभावसंभावितात्मभूतितया किलोदयिकोव । अथवभूतापि सा
नामसंज्ञ-पुण्णफाल अरहंत त किरिया 'पुणो हि ओवश्य मोहादि विरहिय त न खाइग ति भदा । पासुसज्ञः-रह त्यागे, क्खि' क्षये । प्रातिपदिक -- 'पुगयफान अहंत तत् कि पुलम् हि औदायिकी मोहादि थिहै। (३) प्रभुकी कोई भी क्रिया इच्छापूर्वक्र नहीं होती, क्योंकि प्रभुक मुक्ष्मसे सूक्ष्म भी इच्छादि मोहनीय भावोंका प्रभाव है । (४) प्रयत्न बिना प्राकृतिक होने वाली केवली भगवानकी क्रिया बन्धका कारण नहीं होती। (५) बन्धका कारण मात्र राग द्वेष मोह भाव है 1 (६) जैसे मेघाकारपरिणत पुद्गलोंका गमन व अवस्थान पुरुषप्रयत्न बिना होता है ऐसे ही केवली भगवानका विहार व अवस्थान इच्छाके बिना व प्रयत्न के बिना होता है । (७) जैसे मेघाकार परिणत पुद्गलोंका संयोग वियोगज गर्जन पुरुषप्रयत्न चिना सर्वाङ्गत: होता है ऐसे ही केवली भगवान की बचनयोगज व भव्यभाग्योदयज दिव्यध्वनि इच्छा के बिना अबुद्धिपूर्वक सर्वाङ्गतः होती है। (८) मोहनीयकर्मका क्षय होनेपर शेष तीन घाति के मौका क्षय होनेपर केवली प्रभु होता है सो प्रभुके इच्छा रचमात्र नहीं है । (5) इच्छारहित केवली भगवान की क्रिया वन्ध का कारण नहीं बन सकती ।।
सिद्धान्त--(१) उपाधिक प्रभावमें द्रव्य का शुद्ध परिणमन होता है। दृष्टि----१-- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनर [२४] ।
प्रयोग-समस्त बन्धनों का मूल कारण इच्छा है ऐसा जानकर इन्छारहित ज्ञानमात्र अन्तस्तत्वमें उपयुक्त होना ।। ४४ ।।
अब ऐसा होनेपर तीर्थंकरोंके पुण्यको विपाक अकिंचिकर ही है, यह निश्चित करते है-[महन्तः] अरहंत भगबान [पुण्यफला:] पुण्यफल वाले हैं [पुनः हि] और [तेषां क्रिया] उनको क्रिया [ौयिकी] प्रोदयको होनेपर भी [मोहादिभि: विरहिता] मोहादिसे रहित है [तस्मात] इसलिये [सा] वह [क्षायिको] क्षायिकी [इति मता] मानी गई है।
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