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प्रवचनशार: प्रय केवलिनामिक सर्वेषामपि स्वभाबविधाताभावं निषेधयति----
जदि सो सुहो व असुहो गए हबदि श्रादा सयं महावेण । संसारो वि ण विजदि मवेसि जीवकायाणं ॥ ४६ ॥ ___ यदि संसारी आत्मा, शुभ अशुभ न हो स्वकीय परितिसे ।
तो संसार भी नहीं, होगा सब जीववृन्दोंके ॥ १६ ॥ - यदि स शुभो वा अमो न भवति आगा स्वयं स्वभावेन । अंगारोगि न विद्यते सबषां जीवकायानाम् ।।
यदि खल्चेकानेन शुभाशुभभावस्व मावन स्वयमात्मा न परिणामते तदा सर्वदेव सर्वथा सामसंज्ञ---जदित सुह व असुहण अन मयं सहाव संसार विण राध्य जीवकाय । धातुसंज्ञ---हव सत्तायां, विज्ज सत्तायां । प्रातिपदिक यदि तत् गा या अशुभ ग आत्मन् स्वयं स्वभाव गंमार अपि न सत्रं जोनकाय । मूलधातु-भू सत्ताया. विद शनायां विवादि । उभयपदविवरण: जदि यदि व वा पा न सयं मात्माके विहारादि क्रिया होती है वे कम अपन) अनुभाग समाप्त कर खिर जाते हैं अतः वह प्रौदयिकी क्रिया क्षायिकी ही है अर्थात् कर्मक्षय कराने वाली ही है । (६) जी क्रिया क्षायिकी हो जाय वह स्वभावविधात करने वाली कैसे मानी जा सकती है ? (७) सकलपरमात्माके समवशरणादि लक्ष्मी च सातिशय विहार दिव्यध्वनि प्रादि पुण्यपिाकसे होता है तो भी उनका वह पुण्यविपाक किञ्चित्वर (संसार फल न देने वाला) ही होता है।
सिद्धान्त... (१) सफलपरमात्मा विहारादि क्रिया वीतरागला होने के कारण क्षायिकी
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दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकानय [२४] ।
प्रयोग— सर्व क्रियायोंको औयिकी निरखकर व अपने अन्तस्तत्वको अविकार तन्यस्वरूप निरखकर शातामात्र रहना ।।४।।
अब केवली भगवानकी तरह समस्त जीवोंके स्वभावविघातका अभाव होनेका निषेध करते हैं--[यदि] यदि [सः आत्मा] बह आत्मा [स्वयं] स्वयं [स्वभावेन ] अपने भावसे [शुभः या प्रशुभः] शुभ या अशुभ [न भवति ] नहीं होता सर्वेषां जीवकायानां] तो समस्त जीवनिकायोंके [संसारः अपि] संसार भी न विद्यते विद्यमान नहीं है, यह प्रसंग आता है।
तात्पर्य--वीतराग होनेसे केवली प्रभुको औयिकी क्रिया बन्धका कारण नहीं है, किन्तु रागो मोही जीवका विकार व्यापार बन्धका कारण है और बन्धफलका, सुख दुःखका अनुभव करता है।
टोकार्थ--वस्तुतः यदि एकान्तसे यह माना जाय कि शुभाशुभभावरूप अपने भावसे