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प्रवन्न मार:
अर्पतदेवासद्भूतानां ज्ञानप्रत्यक्षत्वं दृष्यति---
जदि पनवखमजायं पजायं पलयं च गागास्स । गा हदि वा तं गागां दिव्वं ति हि के परवेति ॥३६॥ यदि प्रजात प्रलयित पनि प्रत्यक्ष ज्ञानमें नहि हो ।
तो वह ज्ञान दिव्य है, कौन रूपण करे ऐसा ॥३६॥ दि प्रत्यक्षो जात: पर्यायः प्रलयतन ज्ञानय ! न न न कानमा दिव्यमिति हि के प्ररूपयन्ति !३!!
यदि खल्बसंभावितभावं संभावितभा क पा मालमप्रतिविम्भिताखण्डितप्रतापप्रमाक्तितया प्रसभेनैव नितान्त माक्रम्याक्रमसमागतम्बानस्थमात्मानं प्रतिनियतं झानं न करोति, तदा तस्य कुलगतनी दिन्यता स्यात् । ग्रन्द प्रामस्य परिच्छेदस्य सर्वमेतदुपप
नामसंज-जदि पवाय अजाय पहजार नामा दिनक जदि च ण वा लिहियदि मना ति हि । धातुसंज्ञ---जा प्रादृमांचे. व सत्तायई. व बदनाय ! प्रातिपदिक..... यत् नव हि अजात साय प्रलयित जान ज्ञान दिव्य इति हि किम् ! मुलवात-जनी प्रार्भावे, म सत्तायां प्र रूप क्रियायां । उभयपदविवरण-अदिदि च न वा ति त हि-अकारा ! चवलं प्रत्यक्ष अजायं अजात: पज्जार्य पार्याय. पलइय अलयित:-प्रथमा एक० । णाणकस बानम्ब-पष्टी ! पाणं ज्ञान-द्वि० एकदिव्वं दिय--- " एक के के-प्र० ४० । पविलि प्ररूपयन्ति-वर्तमान सिट अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया : निरूक्ति-4. जारः अजातः समास अक्षं प्रति इति प्रत्यक्षम् ।। अजातः पर्यायः अनुत्पन्न पर्याय [च] और प्रिलयितः न पर्याय [ज्ञानस्य केवलज्ञानके प्रत्यक्षः न भवति] प्रत्यक्ष न हो तो तत् माता जानको [दिव्यं इति हि] दिव्य है
ऐसा के प्ररूपयंति कौन प्ररूपण कर सकते हैं ? MAR तात्पर्य ---दिक्ष्य केवलज्ञान में भूत भविष्यन पर्याय भी स्पष्ट ज्ञात हैं।
टीकार्थ----जिसने अस्तित्व का अनुभव नहीं किया, और जिसने अस्तित्व का अनुभव कर लिया है ऐसे अनुत्पन्न और नष्ट पाय समुहको यदि जान अपनी निविघ्न विकसित, प्रखडितः प्रतापयुक्त प्रभुशक्ति के द्वारा बनात अत्यन्त प्राक्रमित करे याने जाने तथा वे पर्यायें अपने स्वरूपसर्वस्वको प्रक्रमसे अर्पित करें अर्थात एक ही साथ ज्ञानमें ज्ञात हों, इस प्रकार शदि उन्हें अपने प्रति नियत न करे अर्थात् प्रत्यक्ष न जाने, तो उस ज्ञानकी दिव्यता किस प्रकार हो? इस कारण पराकाष्ठाको प्राप्त ज्ञान के लिये यह सब ठीक बनता है ।
प्रसङ्गविवरण.---प्रनंतर पूर्व माथामें बताया था कि प्रभुज्ञान में असद्भूत पायें भी सद्भूत हो जाते हैं। अब इस गाथामें असद्भुत पयायोको ज्ञानप्रत्यक्षताको दृढ़ किया है।
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