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प्रवचनसार:
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विपरिच्छेदनिदानमथका ज्ञान मेव नास्ति तस्य । यतः प्रत्यर्थपरिणतिद्वारेण मृगतृष्णाम्भोभारसंभावनाकरणमानसः सुदुःसह कर्मभारमेवोषभुलानः स जिनेन्द्ररुद्गीतः ॥४२॥
षष्ठी एक० । पाणं ज्ञान-प्र. जिणिन्द्रा जिनन्द्राः-१० वहु० । खययन क्षपयंत काम कर्म-द्वि० 0 | - उत्ता उक्तवन्त:-प्रथमा बहुवचन वृदन्त क्रिया । निरुक्ति ज्ञातु योग्यं ज्ञेयं, अपने इनि अर्थः, जानानि इति ज्ञाता, क्षय भवं क्षायिनं । समारा-जिनानां इन्द्राः जिनेन्द्राः ।। २।। प्रात्मरूपसे अङ्गीकृत ज्ञयाकारके अनुरूप इष्टानिष्टादिविकल्पभावपरिगति दर्शनमोहसम्वन्धिल जयार्थपरिणमनरूप क्रिया है। (५) प्रात्मरूपसे अंगीकृत न होने पर भी ज्ञयाकारके अनुरूप हर्ष विषादादि विकल्पभाव परियाति दर्शनमोहरहित चारित्रमोहसंबंधित झयार्थपरिणमन रूप किया है । (६) वीतराम छमस्थ श्रमणोंके क्षायोपशमिक ज्ञानमें ज्ञानावरण देशघातिस्पर्द्धकाविपाकवश होने वाली अस्थिरता वीतराग क्षायोपशामिक ज्ञान सम्बन्धित ज्ञयार्थपरिमामनरूप किया है । (७) ज्ञयार्थ परिणमन कर्मका अनुभवन है ज्ञानका नहीं। (८) यदि ज्ञान प्रत्येक अर्थरूप परिणाम कर जाया करे तो सर्व पदार्थ का परिज्ञान सम्भव ही नहीं हो सकता । (8) बाह्य ज्ञेय पदार्थोंके चिन्तनके समय में समादिविकल्परहित स्वसंवेदन ज्ञान नहीं होनेसे वह चित्तनरूप ज्ञान परमार्थतः ज्ञान हो नहीं है । (१०) निविकार सहज आनंदमय वर्तते हुए सहज जानन होना परमार्थतः ज्ञान है । (११) ज्ञेय पदार्थोको अपनाना ज्ञानका स्वरूप नहीं । (२) जय पदार्थों में रुकता जानका स्वरूप नही । (१३) जयके सम्मुख उपयोगवृत्ति होना || ज्ञानका स्वरूप नहीं। (१४) जैसे ज्ञध है उस प्रकार जाननमात्र उपयोगधुत्ति होना ज्ञानका स्वभाव है।
सिद्धान्त---(१) ज्ञयार्थपरिणमन लक्षणा क्रिया ज्ञान दौर्बल्य अन्य परिणति है । (२) अनेक ज्ञयाकारोंसे करमिजत होने पर भी ज्ञान मात्र जाननस्वरूप एक है ।
दृष्टि-------- विभावगुणन्य जनपया दृष्टि [२१३] । २- ज्ञानज्ञ यातनय 1१७५] ।
प्रयोग--ज्ञेयके अनुरूप हर्षादि विकल्प न बनाकर सहज विश्राममें रहकर जो सहज जानन हो सो ही होनो ऐसा परमविश्रामका पौरुष करना ।। ४२ ॥ स यदि ऐसा है तो फिर ज्ञेय पदार्थरूप परिणमन जिसका लक्षण है ऐसो ज्ञ यार्थपरिममनस्वरूप किया और उसका फल किस कारणासे उत्पन्न होता है, यह विवेचन करते हैं(उबयगताः कर्मांशाः] उदयप्राप्त कर्माश [नियत्या] नियमसे. [जिनयरवृषभः] जिनवर अ वृषभोके द्वारा [भरिणताः] कहे गये हैं। [तेषु] उन कर्भाशोंके होनेपर, [विमूढः रक्तः दुष्टः या जीव मोही, रागो अथवा द्वेषी होता हुअा [बन्धं अनुभवति]. बन्धका अनुभव करता
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