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सहजानन्दशास्त्रमालायां
श्रुतज्ञानमित्यायाति । श्रथ सूत्रमुपाधित्वान्नाद्रियते इप्तिरेवावशिष्यते । साच केवलिनःश्रुत केवलिनश्वात्मसंचेत तुल्यैवेति नास्ति ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेदः ॥ ३४॥
तज्ज्ञप्ति हि ज्ञान सूत्र च ज्ञप्ति भणिता । मूलधातु-भण रण-सुत्तं सूत्रं जिणोत्रदिट्ट जिनोपदिष्ट-प्रथमा एक वचनैः - तृतीया बहु० । संजाणणा तज्ज्ञप्तिः प्रथमा एक एक० च हि-अव्यय । जागणा ज्ञप्तिः प्र० ए० । भणिया अणिता-प्र० ए० कृदन्त किया । निरुक्तिसूत्रयते इति सूत्रम् जयति कर्मारातीन् इति जिनः । समास (जिनेन उपदिष्टं इति जिनोपदिष्टं ) पुद्गलद्रव्यं आत्मा येषां ते पुद्गलद्रव्यात्मकाः तैः वस्य अप्तिः तज्ज्ञप्तिः ।। ३४ ।।
शब्दार्थ, उप विश अतिसर्जने । उभयपदविवपगलदव्वपगेहि पुद्गलद्रव्यात्मकः वयोह जागं ज्ञानं प्र० एक० । सुतस्य सुत्रस्थ - षष्ठी
जानता है तब बाह्यपदार्थ के जाननेकी थाकांक्षाका क्षोभ करना व्यर्थ है । अब इस गाथामें ज्ञान में से श्रुतको उपाधि भी दूर करके ज्ञानकी विशुद्धताका ग्रहण कराया गया है ।
तथ्यप्रकाश —- १ - शब्दरूप द्रव्यश्रुतको व्यवहारसे ज्ञान कहा है। २- अर्थपरिच्छेदन रूप भावतको निश्चयसे ज्ञान कहा गया है । ३- मुद्गलद्रव्यात्मक दिव्यध्वनिके वचनों द्वारा जिनेन्द्रभगवानके हुए उपदेशको द्रव्यश्रुत कहते हैं । ४- द्रव्यश्रुतके प्राधारसे भव्य जीवोंको जो अर्थविज्ञान होता है वह भावश्रुत हैं । ५- द्रव्यश्रुत के आधारसे भी जो ज्ञान हुआ है वह ज्ञान तो श्रात्माका है, द्रव्यश्रुत तो वहाँ उपाधिरूपमात्र है । ६-सूत्रकी जानकारी ऐसा कहनेपर भी जानकारी परिणति सूत्रकी नहीं है, किंतु श्रात्माकी है ७ - भावश्रुतमें मात्र ज्ञान ही देखा जाय, सूत्र उपाधिको न गिना जाय तो वहाँ मात्र "ज्ञप्ति" हो शेष है, प्रवर्तमान है ५-ज्ञप्ति तो केवली और श्रुतज्ञानीके श्रात्मा के संचेतनरूप निश्चयवृत्तिकी पद्धति में समान ही है । ६-ज्ञानस्वरूपमें श्रुत उपाधिकृत भेद नहीं है ।
सिद्धान्त -- १ - वास्तव में ज्ञान तो प्रखण्ड एक प्रतिभासस्वरूप है । २- उपयोगतः निरुपाधि ज्ञान परिपूर्ण विकसित केवलज्ञान ज्ञान है । ३- उपयोगतः सोपाधि ज्ञान मतिज्ञानादिक ज्ञान है ।
दृष्टि-- १ - शुद्धनय [ १६८] २ - शुद्ध निश्चयनय [ ४६ ] । ३ - अशुद्धनव [१६७ ] । प्रयोग -- साधन आधार आदि न देखकर ज्ञानमें मात्र ज्ञानस्वरूप निहारना ||३४|| अब आत्मा और ज्ञानका कर्तृत्व करणत्वकृत भेद हटाते हैं- [ यः जानाति ] जो जानता है [ सः ज्ञानं ] सो ज्ञान है [ ज्ञानेन] ज्ञानके द्वारा [श्रात्मा] आत्मा [ज्ञायकः भवति ] ज्ञायक है [न] ऐसा नहीं है; [स्वयं] ज्ञायक स्वयं ही [ज्ञानं परिणमते ] ज्ञानरूप परिणमित होता है [ सर्वे ]:] और सर्व पदार्थ [ ज्ञानस्थिताः ] ज्ञानस्थित हैं ।
तात्पर्य - ज्ञानस्वरूप ज्ञायक स्वयं ही स्वयंके द्वारा जानता है, यहाँ बर्ताव करण