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माहजानन्दशास्त्रमालायां
स्मनि संचेतनात् केवली, तथायं जनोऽपि क्रमपरिणममाणकतिपयचैतन्यविशेषशालिना श्रुतः। ज्ञानेनानादिनिधननिष्कारणासाधारणस्व संचेत्यमानचैतन्य सामान्यमहिम्नश्चेतकस्वभावेनैकत्वात् केवलस्यात्मन प्रात्मनात्मनि संचेतनात् श्रुतकेवली । अलं विशेषाकांक्षाक्षोभेण, स्वरूपनियचलरेवावस्थीयते ॥३३॥ सुदेण थुलेन-तृतीया एनाल | विजागदि विजानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। अगाणं आत्मानं जाणगं ज्ञायन-वि० एक० । सहावेण स्वभावेन-तृतीया ए० । तं मुयकेलि श्रुतकेवलिनं-द्वितीया एक० । इसिणों ऋषिणो लोयरपदीवयरा लोकप्रदीपकरा:-प्रथमा बह० । भणति भणन्ति-वर्तमान लट अन्य पुरुष बहुबचन क्रिया। निरुक्ति---श्रूयते यत् श्रुतं, जानातीति जायक: । समास--स्वस्य भावः स्वभाव: तेन, लोकस्य प्रदीपं कुर्वन्ति इति लोकप्रदीपकरा: ।। ३३ ।। प्रकार यह पुरुष भी क्रमश: परिणमित होते हुए कितने ही चैतन्य विशेषों से युक्त श्रुतज्ञानके द्वारा, अनाद्यनंत अहेतुक असाधारण स्वसंवेद्यमान चैतन्यसामान्य महिमा वाले तथा चेतक स्वभावके द्वारा एकत्व होनेसे केवल शुद्ध अखण्ड प्रात्माको प्रात्मासे आत्मामें अनुभवनेके
कारण श्रुतकेवली है । अतः विशेष आकांक्षाका क्षोभ व्यर्थ है, अब तो हम स्वरूपनिश्चल हुए .. ही रहते हैं।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें प्रभुकी समस्त परद्रव्योंसे अत्यन्त विविक्तता दिखाई थी । अब इस गाथामें केवलज्ञानी व श्रुतज्ञानोमें मूल रीतिको समानता दिखाकर विशेष प्राकक्षिाके क्षोभको समाप्त किया है।
तश्यप्रकाश--(१) निराबरण होनेसे पूर्ण विकसित केवलज्ञानके द्वारा केवली भग• वानको वस्तुतः आत्मावा परिज्ञान होता है । (२) ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे एकदेश विकसित स्वसंवेदनरूप भावश्रुतके द्वारा छद्मस्थ ज्ञानीको प्रात्माका परिज्ञान होता है । (३) जैसे केवलज्ञान प्रमाण है, ऐसे ही केवलज्ञान प्रणीत पदार्थ प्रकाशक श्रुतज्ञान भी परोक्ष प्रमाण है। (४) जिसमें एक साथ समस्त चैतन्यविशेष विकसित हैं ऐसे केवलज्ञानके द्वारा केवल अर्थात् शुद्ध प्रात्माको जाननेसे प्रभु केवली कहलाते हैं। (५) जिसमें क्रमसे चैतन्यविशेष विकसित होते रहते हैं, ऐसे केवल ज्ञानके द्वारा केवल आत्माको जाननेसे अन्तरात्मा श्रुतज्ञानी अथवा श्रुतकेवली है । (६) केवलज्ञानी भी अपनेको जानता, श्रुतज्ञानी भी अपनेको जानता, फिर अधिक अर्थात् परपदाथोंके जाननेकी इच्छाका क्षोभ करना बिल्कुल बेकार है । (७) विवेकी जन अधिक जानने की इच्छाका क्षोभ न करके स्वरूपमें ही निश्चल रहनेका पुरुषार्थ करते हैं 1 (८) स्वसंवेदनज्ञानरूप भावभुतज्ञान केवलज्ञानोत्पत्तिका चीज है ।
सिद्धान्त--(१) आत्मा सर्वत्र अपने आपको ही अनुभवता है । (२) परमात्मा केवल
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